बाह्य रूप से ( विरोधेपि ) विरोध होने पर भी ( अहं मम इत्यध्यासः) यह मैं हूँ, ये मेरे हैं, इस प्रकार का श्रध्यास ( स्फुटम्) जैसा है तैसा ही स्पष्ट सबने (दृष्ट:) देखा है । अर्थात् यद्यपि श्रात्मा चेतन ज्ञान रूप है, दृश्य जड़ विपय हैं श्रौर श्रात्मा सवके अन्तर है और दृश्य वाह्य है, इस प्रकार से प्रकाश तम की तरह आत्मा का और दृश्य प्रपंच देहआदिकों का परस्पर विरोध है, तथापि तहां सभी लोगों ने श्रहंता ममता रूप अध्यास अनुभव किया है (इति) इस कारण से विरोध की प्रतीति और सादृश्यता की श्रप्रतीति में भी ( अत्र) इस उक्त अध्यास में (सुधियाम्) विद्वानोंको (असंभावना नास्ति) संशय नहीं होता, क्योंकि (गत्याभावात् ) और कोई गति ही नहीं है । (स्वप्नादौ ) विसदृश प्रान्मा में स्वप्न का श्रीर स्फटिक में लाली का अध्यास देखा गया हैं । वैसे ही (गगने मालनिमाध्यास दशनात् ) श्राकाश में रूप के न होने पर नीलिमा आदिकों का अध्यास देखा गया है। यहां प्रमाता प्रमाण प्रमेग्रगत आदिक सर्व दोषों के प्रभाव होने पर तीरूप श्राकाश में नीलिमा आदिकों के अध्यास का सबको अनुभव होता है । इसी प्रकार प्रकृत श्रात्मा में किसी दोष के न होने पर भी श्रहंता ममता रूप श्रध्यास संभव है । यहां विचार घर देखा जाय तो सर्व दोपों का कारणरूप अज्ञान ही परम दोप है। उस अज्ञान के होते हुए अध्यास की असंभावता कैसे हो सकती है ? क्योंकि अघटित घटनापटुता श्रज्ञान में स्पष्ट कह श्राये हैं । प्रवृत्ति निवृति आदि व्यवहार में (बुधानाम्) विवेकी ज्ञानियों की और शास्त्रीय पंड़ितों की तथा (पश्वादीनां च सा म्यात्) पशु आदिकों की तुल्यता ही है इसलिये (अखिला) ७ स्वा. सि
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