पृष्ठम्:संस्कृतनाट्यकोशः.djvu/१४

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( पांच ) होने लगा है। इन लोगों का कहना है कि सहृदयता और भावुकता से ओतप्रोत भारतीयमानस वेदों की रचना के बाद हजारों वर्ष मौन रह ही नहीं सकता था। निश्चित ही यह रचना उतनी पुरानी नहीं हो सकती जितनी की भारत में समझी जाती है। आशय यह है कि उस काल में नाटक के क्षेत्र में कितना साहित्य लिखा गया था इसका निश्चयात्मक उत्तर देने का साहित्य जगत के पास कोई साधन नहीं है। भारत में समस्त ज्ञान, विज्ञान, धर्म, दर्शन इत्यादि का मूलस्रोत वेद माना जाता है। जिस प्रकार हम अनेक प्रचीन उपाख्यानों का मूल वेद में तलाश करते हैं और पुराणों, बौद्ध, जैनों के अनेक कथानकों का सातत्य वहीं से स्वीकार करते हैं उसी प्रकार नाटकों का मूल भी वेदों में ही होना चाहिए। वेदों को संहिता कहा गया है जिसका अर्थ होता है संकलन । ज्ञात होता है वेद में विखरी हुई ललित काव्यराशि का संकलन किया गया है। संकलन का स्वभाव होता है कि छांटकर अच्छे भाग को संकलित कर दिया जाता है और साधारण भाग की ठपेक्षा कर दी जाती है। वेदों में जो अनेक संवाद सूक्त पाये गये हैं उनके विषय में कल्पना की गई है कि ये वस्तुतः किसी नाटक के अंग होंगे जिनमें पद्यों और गीतों के साथ गद्य भी समाविष्ट रहा होगा। संकलन कर्ता ने गद्य भाग छोड़ दिया, केवल पद्यों का संकलन कर दिया। सम्भवतः ये सूक्त किसी नाटक का अंग रहे होंगे। यह स्वाभाविक भी प्रतीत होता है। इसे हम आज के सन्दर्भ में भली भांति समझ सकते हैं। टेलीविजन के चित्रहार में विभिन्न फिल्मों के संकलित भाग दिखलाये जाते हैं। जिनमें गद्य की प्रायः उपेक्षा ही की जाती है, केवल पद्य भाग का संकलन किया जाताहै। ओल्डेन वर्ग की सम्मति में आख्यानक सूक्तों की व्याख्या गद्यपद्यात्मक कथानक की ओर लौटकर ही उस कथानक के प्रकाश में ही की जा सकती है संकलन में जिसका पद्यभाग ही हम तक पहुंचा है और उस पद्य के आधार पर ही पूरे कथानक का उन्नयन करना पड़ता है ।इस प्रकार के कथानक कुछ तो ब्राह्मण ग्रन्थों में मिलते हैं; पुराणों, जैन साहित्य और बौद्ध साहित्य में कभी कभी इन प्रगीत सूक्तों की पृष्ठभूमि प्राप्त हो जाती है। एसलेवी, जे. हलेंट और वाना एल.वी. श्रोडर के मत में ये संवाद सूक्त प्रगीत कमोवेश पूर्ण नाटक हैं। विण्टनित्ज का कहना है कि हो सकता है ये संवादसूक्त वास्तविक पूर्ण नाटक न हों फिर भी ये आदिकालीन मानव के अविकसित प्रारम्भिक नाटक हों। वास्तव में ये आख्यान सूक्त हैं और उन्हें आदिमानव के नाटक या प्रांत काव्यमात्र कहा जा सकता है। पुरुरवा उर्वशी सूक्त की व्याख्या शतपथ ब्राह्मण में आये तत्संबद्ध कथानक के परिशिष्ट रूप में ही की जा सकती है। ऋग्वेद के संवादसूक्तों का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। उनमें पुरुरवा उर्वशी सूक्त शृङ्गार रसात्मक रचना है; यमयमी सूक्त शृङ्गारसाभासव्यञ्जक रचना है। सरमापणि सूक्त १. (दे. विष्टनिब का हिटी आफ इण्डियन लिटरेचर भाग ३ पू. १८०) २. (वही. पू. १८०