66 भक्षयित्वा मदोन्मत्ताश्रेरुस्तत्र सहस्रश । आपलवन्तः प्लवन्तश्च गजन्तश्च प्लवङ्गमाः ।। ३८ ।। श्रृंगाच्छूङ्ग गिरेस्तत्र वृक्षाद्वृक्षं वनाद्वनम् । चेरुस्ते वानराः सर्वे मुदिता बलगर्विताः ।। ३९ ।। तव रामचन्द्रजी प्रसन्न होकर सुग्रीवादि के साथ वही पर अपने भकान के समान आराम से रहने लगे और इधर उनके बन्दर जो महाबली एवं महा बुद्धिमान श्रे, सर्वत्र के फल, मूल, फूल, मधु स्वादिष्ट जल तथा अनेक भक्ष्यों को खाकर मदोन्मत्त हो; हजारों इधर, हजारों उधर विचरण करने लगे। कही कोई छलता, कोई तड़पता, कोई उड़ता, कोई गर्जता तथा कोई एक शिखर से दूसरे शिखर, एक वृक्ष से दूसरे वृक्ष पर, एक वन से दूसरे वन में आनन्दित एवं बलगर्वित होकर धूभता था । (३५-३९) केचिदारुरुहुस्तत्र वानरान् वानरोत्तमाः । कांश्चित्पुच्छप्रदेशे तु गृहीत्वा वानरान्क्वचित् ।। ४० ।। कर्षन्ति स्म तदा कांश्चित्केचित्कर्ण चुचुम्बिरे । दृष्ट्वै रावणं सङ्गये हन्याम ससुहृद्गणम् !! ४१ ।। लङ्कां समूलमुत्पाट्य त्रिकूटं वा महागिरिम् । आनेष्यामो वयं सिन्धुं बहुनक्रसमाकुलम् ।। ४२ ।। तरामो बाहुवेगेन गृहणीमश्चंद्रभास्करौ । पाटयामो गिरीन् सर्वान् रामार्थे भूरूहानपि ।। ४३ ।। पातालं वा महलॉकं प्रविशाम रसातलम् । गच्छामो रावणो यत्र तिष्ठत्यविनयान्वितः ।। ४४ ।। तमेव हन्मः शूरं तु सगणं लोककण्टकम्। चिरायते शिरश्छेदे रामः परमधार्मिक ।। ४५ ।। ।