ऋष्यमूक पर्वत से बहुत-सी वानर सेना से समावृत होकर, रावण को वध करने को उद्यत होकर धनुर्धारी रामचन्द्र जब शेषाचल के समीप आ गये, तब वायु पुप्त हनूमान की माता साध्वी अञ्जना देवी रक्तान्त लोचन श्री रामचन्द्र के आगे आकर प्रणाम कर यह वचन बोली ! (-१०) हे सुव्रत, हे महाबाहो, आपके अद्भुत आगमन की प्रतीक्षा करते हुए मैं इस पर्वत पर रहती हूँ। अनन्त मुनिगण भी इस जंगल में आपके आगमन की आकांक्षा से तप करते हैं, उन सबों से अनुक्ता लेकर आपको जाना उचित है। यह सुनकर रामचन्द्रजी ने हनूमानजी की माता से कहा । (१०-१२) 62 श्रीराम उवाच 'कालात्ययो भवेद्देवि मयि तत्र समागते । ममेदानीं वरारोहे कार्यस्य महती त्वरा ।। १३ ।। पुनरागमने देवि तथा भवतु सुन्दरि । इत्युक्त राघवेणैतद्वाक्यं श्रृत्वा महामतिः ।। १४ ।। हनूमान् प्रणतो भूत्वा वाक्यं चैतदुवाच ह । स्थातव्य मत्र भवता यत्र कुत्राऽपि सर्वदा ।। १५ ।। यस्माच्छान्ता महासेना वानराणां तरस्विनाम् । अयं च मार्ग एवाद्रिः सदापुष्पफलदृमः ।१६ । बहुप्रस्रवणो पेतो बहुकन्दर सानुमान् । सुस्वादु कन्दमूलोऽयमञ्जनाख्यो महागिरिः ।। १७ ।। मधूनि सन्ति वृक्षेषु बहूनि गिरि कन्दरे । वेत्थ सर्व महाबाहो ! यथेच्छसि तथा कुरु' ।। १८ ।। श्री रामचन्द्र बोले-हे देवि, मुझको वहाँ जाने से बहुत देर हो जायगी और है वरारोहे! मेरे काम में अत्यन्त श्रीघ्रता की आवश्यकता हैं, अत एव फिरती बार तुम्हारे कथानुसार करूंगा । महामति श्री हनूमान रामचन्द्रजी की इन बातों को सुनकर प्रणाम कर नम्र होकर ये वचन बोले कि कहीं न कहीं यहाँ ठहरना ही होगा