त्रयानं रत्नमयं निधायं पुरतो हरेः। वासुदेवं . बभाषेऽथ ब्रह्मा लोकपितामहः ।। .२४ ।। नरथान् समारुह्य कुरु चैत्यप्रदक्षिणम्' ! एवमुक्तः प्रत्युवाच श्रीनिवासः पितामहम् ।। २५ ।। मार्गमेिं सबके मिल जाने के कारण धनुष्यों कीभीड़ इो जानैसे कोई भोजन रते, कोई बिना अन्नकै, कोई दूध पीते तो और शोई पारण करते थे । हे राजन ! ये सभी श्रीनिडासले भक्त हो गये । कलियुगमें श्रीभगवद्भक्तों ने धन, वस्ल, भूषण, सजीव शरीर और सुश्च यह सब श्रीवेङ्कटेशछे चरणकमलमें अर्पण कर दिया । वहाँपर सुनियों और ऊध राजालोंको यथाक्रम बुलाकर सूर्यये अन्याराशिमें होवेपर द्वितीयको जगत्पति श्रीनिवासवा ध्वजारोहण, अंकुरार्पण आदि करके वैखानस मुनि श्रेष्ठोंसे मन्त द्वारा पूजा करवायी; और रत्नाकी बनी हुई मनुष्योंकी सवारी श्रीनिवाश्के छानचै रखकर लौक पितामह ब्रह्मा उनसे खोले, भगवदाज्ञया अहमकृतभवन्मूर्तिचतुष्टयनिर्माणप्रकाः श्रीविश्वास उवाच--- भीः पुख बालभावोऽसि शासितो वेदनिर्णयः । । स चाध विस्मृतस्तात ! परीक्षा दीयतां मम' ।। २६ ।। स तद्वचनमाकण्र्य किञ्चिच्चिन्तासभाकुलः । परीक्षौ च ददौ विष्णोर्वेदान वेदवित्तभः ।। २७ ।। स्खालित्यसभवत्किश्चित्रीक्षायां विधेस्तदा । सुतोऽवबोधितः सम्यग्वेधाः वेदानुशासनम् ।। २८ ।। मूर्तीश्चतस्रो मन्त्रैस्तु चतुर्वेदसमुद्भवैः ।। २९ ।।