तस्मात्त्वमस्य भद्रेच्छनिवर्तय पतिं रणात् । स्त्रीणां तु परो धर्मः पतिभक्तिः पतिप्रिये ।। ८ ।। भद्रं ते भ्रातरेव स्यात्कनिष्ठपितुरेव वा । एवं मत्वा महाभागे ! कुरु त्वं त्वत्पतेर्हितम् ।। ८९ ।। खनसो मम कल्याणि ! सन्धियत्नः प्रशस्यते । तावुभौ राज्यकर्तारौ पितापुत्रौ न संशयः' ।। ९० ।। इत्युक्ता मुनिना तेन राजपुत्री समुत्थिता । प्राकारान् मुनिना सार्ध सङ्ग्रामधरणीं ययौ ।। ९१ ।। आन्दोलिकां महाराज ! हेमदण्डविभूषिताम् । आरुह्य राजतनया श्रीनिवासपरायणा ।। ९२ ।। गरुडध्वजभालोक्य पतितं पृथिवीतले । रणाग्रे स्वपतिं कृष्णं श्रीनिवासं सुरेश्वरम् ।। ९३ ।। सखङ्ग वमसाहत समुत्थाप्य रणाङ्गण । सशीतलोदकामोदैव्र्यजनैः साध्वमार्जयत् ।। ९४ ।। पदमावत्यब्रवीच्चापि शोचन्ती तं पतिव्रता । अगस्त्य बोले-षो मनुष्य देश और कालको लविकर काम करता है व न तो काम के फल को पाता है और न सुख ही पाता है। अपके-अपने कार्य में सद चतुर होते हैं; दूसरे के कार्य में कोई नहीं! तुम्हारे पतिो रणमें गिर कौल नहीं। देखता है? रणमैं लगे हुए क्षसियों के स्जीव शरीरयुद्ध उत्साह छौर कौतुछको उत्तरोत्तर बढ़ाते और जीते हुए फूलके समान होते हैं। हे सज्जनों की प्रिया ! साथ निर्जीवपर होने उसको कोई भी नहीं देखता । शूरों से राजागण केवल जीवन पर्यन्त कार्य लेते हैं; इसलिए तुम्हारे पतिकी दशाको यहाँपर कोई नहीं सोचता है । अतएव इतकी कुशल वाहनेवाली तुम अपने पतिको रणसे लीटा लो ! हे पतिक