पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/६८४

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आशीर्वाद ततश्चक्रे स्वजाभातुरनामयम् । तव रुड़के कर्घपर स्वयं चढ़वार सुन्दरी पत्नी पद्मावतीको भी चढ़ावा और एक दूसरेका थालिङ्गन कर श्रीनिवासने अपने स्थानको जाने की इच्छा फ्री । (सास) और श्वसुरको आमंत्रण छरने के लिये पुनः वर में प्रवेश कर चलने की इच्छा करते हुए साष्टाङ्ग प्रणाम कर उनसे पूछा । तव श्वसुर आकाशराज:वे श्व धरणी के साथ एवे निर्दोष जामाताको वाशीर्वाद दिया । (४०९) दोर्धायुर्भव गोविन्द ! सर्वलोकधुरन्धर ! । इत्याशिवाऽभिनन्द्याथ वासुदेवमभाषत ।। ४१० ।। आकाशराज बोले-हे सब लोकों से धुरको धारण करनेवाले गोविन्द ! आप दीर्धायु (बहुत दिन जीनेवाले) होओो । इस प्रकार आशीर्वाक्ष से अभिनन्दन (४१०) मासान्ते गच्छ गोविन्द वध्वा सह वयोगतम् । श्वशुरं मां च ते श्वश्रू मानयस्व महामते ।। ४११ ।। इति तस्य वचः श्रुत्वा वासुदेवोऽब्रवीनृपम् । राजा बोले-है गोविन्द ! यधू के साथ महीने के अन्त में जाइये । सुक्ष वृद्ध श्वसुर एवं अपनी श्वथूका झना मानिये । उनके इस वचनको सुनकर (४१२)

  • नृप! वाक्यं श्रुणु सम कार्यस्य महती त्वरा ।। ४१२ ।।