हन्ति केचित्प्ररुदन्त केचित्प्रयान्ति केचित्प्रलपन्ति केचित् । पतन्तभन्ये करपल्लवेन समुद्धरन्ति स्म इसन्ति केचन । हे राजन ! वासुदेवके प्रस्थानके समक्ष, वहाँपर देवताओं, ऋषियों, असुरों. गन्ध्रब, तपस्वियों, पशुओं, मनुष्यों, स्त्रियों, वृक्षुधों, बालकों कौर राक्षसों की बड़ी भीड़ हो गंथी जहांपर स्त्रियोंका, ऋषिवींका, ऋषिकन्याओंक्षा, देवताखोंकी स्थिौंका एवं देवताओंक्षा शापसे एक दूसरेछे साथ झगड़ा हो गया । हे राजन ! वहाँपर कोई धनीन स्त्री पतिका अवलम्ब लेश्वर, पुत्रो ऽन्वेपर रखकर, शिरपर बोझ लेकर मार्गमें पैदल ही जा रही धी। हे महाराज ! उसी समय रास्ताको रोकती हुई स्वस्य इो चलती हुई देवडाकी स्त्रियों उन दुबले. धनहीनोंको झिड़कती थी । लन वह . भारसे दुःखी स्त्री-हः नाथ! हा नाथ ! मुझे धनमें छोड़ना आपके लिये याब्ध नहीं है-यह कहती हुई अपने पतिसे बिछुड़ गयी और पुत्रके अrथ पृथ्वीपर गिर पड़ीं । इदपर उच्चे रोपेते थे और कोई बानग्दिस होते थे। हे राष्लन ! कोई तो दुध ही दुधं वाह, कोई अन्न ही चाहते थे; और कोई खीर तो कोई हे राजन ! दही और भाव ही खाते थे; और कोई हँसते, छोई रोते, कोई चलडे, कोई प्रलाप (बकना) शकते, कोई श्रिते हुए को उठाते और कोई कोई इंसते थे । (२०५) सुराङ्गनाश्च राजेन्द्र ! तथा वैखानसाङ्गनाः । ऋष्यङ्गनाश्च गन्धर्वनिताश्चारुलोचनाः । २०६ ।। अवारोहन् गिरेश्चैव श्रीनिवासपरायणाः । शेषाचलं समारभ्य नारायणपुरावधि ।। २०७ ।। तिलमात्रावाशः स्म भागमध्ये व दृश्यते । मध्ये कृत्वा पर्दातीर्थ गंता सा वाहिी हरेः ।। २०८ ।। हे राजन ! श्रीनियांसके भक्तं सुन्दर क्षेत्रवाली देवताओं, वैखानसौं, ऋषियों एवं गन्धर्वोकी स्त्रियों के पहाड़से उतरते हुए शेषाचलसे लेख्र नारायणपुर तक जानेसे मार्गमें तिलमात्र भी जगह खाली नहीं दिखायी देती थी। वे भगवान की (२०८)