467 दुरायारी हूँ, पुद्धका दरिद्री हूँ! हे गुरु ! मैं किस लोक वा नरक में जाऊँगा ? हे महाप्राज्ञ द्विजोत्तम ! पुवलाभ करने के येि या उपाय है? इस प्रकार के राजा छे वचन सुन गुरुजी बोले । (५७) धरणीतलात् पद्मावत्युत्पत्तिवर्णनम् यज्ञ कुरु नृपश्रेष्ठ ! पुत्रस्तेन भविष्यति । गुरु जी बोले-हे नृपश्रेष्ठ ! यज्ञ कीजिये, उससे पुत्र होगा । गुरोर्वाक्यं समाक्षण्र्य यज्ञायाशोधयद्धराम् ।। ५८ ।। स्वर्णलाङ्गलसङ्धैश्च द्विजैर्मन्त्रिगणैस्तथा । शोध्यमाने धरपृष्ठे तत्र पद्य ददर्श सः । सहलपत्रं राजेन्द्रः किमेतदिति विस्मितः ।। ५९ ।। कन्यां च पन्नेषु रमाकृतिं शुभां दृष्ट्वाऽतिसन्तुष्टवना बभाषे । देवेन दत्ता त्वियमिन्दिराभा कन्याकुमारी कमलाभली ।। ६० ।। आरणीतलसे पद्मावती की उत्पत्तिका . वर्णन राजा गुरुके दचन सुनकर यज्ञ के लिये भूमिको सुवर्णके लंगलों (हृलों) से, ब्राह्मण और मंत्रीगणोंके साथ शोधन करने लगे, और शोधन करते समय पृथ्वीतलपर, एक हजार, दलवाले कमलको देख, यह क्या है इस प्रकार आश्चर्थ के साथ उन दलों में लक्षी वे ग्राकारवाली एक सुन्दर कन्धाको देखकरं प्रसन्न मनसे वद्ध राजा बोले, यह अक्ष्मीके समान प्रकाशवाली, कमलनयनी कुमारी कन्या मुझे देवताके द्वारा दी गयी है । । (६०) इत्थं समाभाष्य नृपोत्तमोऽसौ हस्ते प्रगृह्याऽशु बभाण दीनः। भाया महेशस्य दुरत्यया हरेः केयं तु या सम्प्रति गृह्यते मर्था ।। ६१ ।।