पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४७७

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458 एन्द्रह हाथ का शुम्र वस्त्र पहल्कर, उसके ऊपर कटि में रस्सी के विनवाले (४ामोदर) लक्ष्मीपति ने इरधनी एड्, स्वच्छ वर्ण और पांच हाथ का एक उत्तरीप दुपट्टा भी धारण कर , दर्पण में मुख देखकर, स्वच्छ मृतिका का सुन्दर तिलक धारण कर एवं उसके बीच में कुंकुम का एक विन्दु देकर, पूगीफल सुपारी), ताम्बूल, चून. रखने का पात्र, कपूँर से सुगन्धित उत्तम् जातीफल (जावित्री) लवग एवं जातीपत्र में मिलाकर लगाये हुए वोड़ों की एक रत्न की पेटी, दर्पण स्वच्छ मृत्तिका तथा कुंकुम की डिविा इन सेवों को स्वर्ण के बने हुए वस्त्र से कमर में बन्धकर, स्वर्ण का यज्ञोपवीत पहने हुए, कण्ठ के आभूषण से शोभित, कंकण से सजे हुए बाहुओं से सब्पूर्ण श्रेष्ठ बंगवाले, अंगुलियों में रत्नमयी मुणकीर्ति-रूप रत्नजटित सुवर्ण की अंगूठियों से यिराजमान्, कुंकुमयुक्त सुगन्धि से लपेटे हुए, हृदय और वाहुबलि, केशों में कबरी चोटी) बना, लाल वस्त्र लपेटकर, कन्धातक लम्बे फूल की भाला से शोभित. भुवर्ण और रत्नों से उड़ी हुई पादुका पैर में पहने हुए तथा धनुष-ाण धारण किये हुए, श्रीमान्, साक्षात् शामदेव के भी कामदेव जैसा मनोहर रूप धारण करके श्रीवेंकटेश भगवान्, रत्न से भरे हुए आच्छादन (वारजामा) से शोभित, सुवर्ण-तिलक से शोभित मुखवाले, वायु और मन के समान वेगवाले, नीलवर्ण एवं पीले पैरवाले ल्द्रह हा ऊँचे घोड़े पर वढ़कर मणि आदि सब लक्षणों से संयुक्स देवश्रेष्ठ पर्वत पर से उतरकर मृपया के लिये गये । (१४ ); मृगयाविहारसमये श्रीनिवासस्य कन्धादर्शनम् भृगान्बहुविधाकारान् सिंहशार्दूलजम्बूकान् । मातङ्गाञ्छरभान्धोरांस्तथा वै महिषानपि ।। १५ ।। जधान तान् वने देवः संचरन् स इतस्ततः । तत्रैक हस्तिनं दृष्ट्वा मदोन्मत्तं वनेचरम् ।। १६ ।। तं हन्तुमगमत्पृष्ठमनुसृत्य रमापतिः । स जगाम वने दूरं भयाद्भीतो वृषाकपिः ।। १७ ।। स योजनार्ध गत्वा तु तत्र देवं जनार्दनम् । दण्डवत्पतितो भूत्वा शुण्डामुद्धृत्य गर्जयन् । यदा गतस्तदा कन्या दृष्टिमार्गमुपाश्रिता ।। १८ ।।