पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४७३

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455 कोई देवता का पूजन (उम्माल) करता है, तो कोई देवता इवारा पूजा जाता है । हनुमान के द्वारा पूति होवे पर भी भगवान स्वयं अर्जुन की पूजा (सारभ्य द्वारा) करते हैं । भगवान के विचित्र और मनुष्यों को पवित्र करनेवाले वल को कौन वर्णन करे? क्योंकि इस नित्य और शुद्ध विष्णु के अभिवादन करने से ऋषियों को भी पुण्य और नहीं करने से दोथ का सञ्चय होता है । इसलिये सब तत्वज्ञानी ऋषियों, राजाओं, पितरो, ब्रह्ममणों, मनुष्यों एवं जड़ राक्षसों सभी से श्रीहरि पूजे, जाने योग्य हैं । कलौ कलुषचित्तानां पापाचाररतात्मनाम् । रक्षणार्थ रमाकान्तो रमते प्राकृतो यथा ।। ५० ।। दैत्यानां भोहनार्थाय सुराणां गोदनाय च ।। क्रीडते बालकैबलो जगत्पालकबालकः ।। ५१ ।। जगन्मोहनसौन्दर्पलीलाभानुषविग्रहः । नैतदूपं कृतं देवैर्न कृतं विश्वकर्मणा ।। ५२ ।। स्वेच्छया क्रीडते तत्र स्वेच्छाख्पविराजितः ।। कलियुग में कलुषित चित्तवाले एवं पापकर्म में लगे हुए जीवों की रक्षा के लिये लक्ष्मीपति प्राकृत मनुष्यों कि जैसा रमण करते हैं । संसार को मोहन करनेवाले, सौंदर्य युक्त, लीला से ही अनुष्य का शरीर धारण करदेवाले एवं संसार का पालन करनेवाले भगवान दैत्यों को मौहुन करवे और देवताओं को आनन्द देने के लिये बालकों के साथ खेलते हैं। यह रूप न तो देवताओं के द्वारा घनाया गया है और न विश्वकर्मा ही के द्वारा, अपनी इच्छा से ही रूप धारण कर, वाँ अपनी इच्छा से ही क्रीड़ा करते हैं। क्षेत्रस्य महिमा दिव्यस्तथा तीर्थस्य वैभवम् ।। ५३ ।। तत्र साक्षाद्रमाकान्तः क तत्र सुकृत कृतम् । बहूजन्माजितैः पुण्यैर्लभ्यते क्षेत्रदर्शनम् ।। ५४ ।।