462 समधुप्रेषयन्नित्यं तया वकुलमालया । सा बाला भक्तिनिरता श्रीनिवासस्य सन्निधौ ।। ३३ ।। तब से वराह ने पापकारी बकुलमालिका को श्रीवेंकटेश की वा के लिये समर्पण किया और उनके भोजन के लिये उसी बहुलनालिका द्वारा श्यामा (ीवा) मधु के साथ निरन्तर भेजते रहे। वह बाला भक्ति में लगी श्रीनिवास के पास रहती थी। (३) अन्नपानौषधाद्वैश्च पादसंवाहनादिभिः । पूजयामास गोविन्दं श्रीनिवासं निरामयम् ! ३४ ।। उस श्रीनिवास गोविन्द की उन्न, पान, औथध एवं चरणों की सेवा के द्धारा पूजा करदै लगी । । श्रुतं सूत ! महाभाग देवागमनसुत्तमम् । न श्रुतं श्रीवराहस्य प्रथमं दर्शने फलम् ।। ३५ ।। श्रीनिवासस्य कृष्णस्य कल्याणं शुभदं महत् । पुनः श्रीवेङ्कटगिरौ वासः श्रीशाङ्गधारिणः । वकुला सेविका प्रोक्ता का सा पूर्व वदस्व नः ।। ३६ ।। ऋषि बोले-हे महाभाग ! हे सूत ! श्रीभगवान का आना हमले उत्तम रीति से सुना; किन्तु श्रीवराह के यिन दर्शल का फल, श्रीनिवास कृष्ण का शुभकारक विवाह और श्रीवेङ्कटाचल पर श्रोशाङ्गधारी के वास के धारे में नहीं सुनः कुलमालिका दासी जो आपने कही, वह पहले कौन पी, हँपसे कहिये । (३६) वकुलमालिकाख्यभगवत्पिरचारिकापूर्वजन्मवृत्तान्तः पुरा यशोदा बकुला कृष्णस्य जननी ह्यभूत् । अदृष्टाऽनन्तरूपस्य कृष्णस्य तनयस्य सा । कल्याणं सुखदं स्वस्य तदयाचत तं हरिम् ।। ३७ ।।