पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४६६

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448 समागच्छत्तदा देवो वेङ्कळेशं ददर्श सः । गर्जन्तः कोऽसि कोऽसीति सूक्रुरास्तत्र चाययुः ।। १० ।। तान्दृष्ट्वा जगदीशस्तु सन्न लीनोऽभवद्धरिः । लींनं तं वेङ्क्ठे दृष्ट्वा वराहवदनो हरिः ।। ११ ।। वैकुण्ठादागतं मत्वा वेङ्कटेश श्रियः पतिम् । उवाच वचनं देवं धेर्यमालम्ब्य बुद्धिमान् ।। १२ ।। एक दिन श्री वेंकटेश भषेवान् अधुना औषध लाने के लिये स्वयं हूँ अरुणोदय के समय बाहर निकले । उसी समय ऋगया में सूकरों द्वे साथ षाङ्ग भावान् श्यामा (सावां) के चुरानेवाले वृषमासुर दैत्य को जीतझर आते थे ! लव उन्होंने श्री वेंकटेश भगवान् को देखा ! तू छौन है ? तू कौन है, ऐसा जम्? करते हुए सब सूकर वहाँ पर आ गये । उनको देखकर श्री जगदीशा भगवान् अन्शध्न हो गये । उनको वेंकटाचल में तिरोहित होते देखश्झर दुद्धिमान् ने लक्ष्मी के पति वेंकटेश को वैकुण्ठ से आया त्रुझा जान, धैर्भ धारण कर उनसे कहा ॥ ९ ३ ! सोऽपि श्वेतवराहं तं जानन् वल्मीकगस्तदा । निरीक्षमाणः सोत्कण्ठं तिऽत्यिोत्तरमभ्यधात् ।। १३ ।। ततोऽन्योन्यविलोकोत्थबाष्पसन्दिधलोचनौ । अचतुर्भाषणं चोभौ कृतलोकविडम्बनौ । तयोस्तदद्रुतं कर्म दृष्ट्वा ब्रह्मपुरोगमाः। श्री वेंकटेश ने भी उत्कण्ठापूबैक देखते हुए पुनको श्वेत वराष्ट्र शान, वल्मीक से निकलकर उत्तर दिया ; सब सक दूसरे झे देखने से उत्पन्न आश्रु द्वे-भरे हुए वेक्षवाले, अलग-अलग रूपों से शोभित एवं संसार को भोहित करवैवाले दोनों भगवाम् और वराह लोक का अनुकरण करते हुए परस्पर बोले ॥ २५ ॥