पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/४३

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25 वङ्काराऽमृतबाजस्तु कटम्श्चयमुच्यत । अमृतैश्वर्यसङ्कत्वाद्वेङ्कटाद्रिरिति स्मृत ।। ३१ ।। यत:कदाचिद्देवानां श्रीनिवास इहाबभौ । श्रीनिवासगिरिं प्राहुस्तस्मादेनं दिवौकसः ।। ३२ ।। आनन्दाद्रिमिमं प्राहुः वैकुण्ठपुरवासिनः । प्राहुर्भगवतः क्रीडाप्राचुर्यात्तु तथा सुरा ।। ३३ ।। श्रीप्रदत्वाच्छियो वासाच्छब्दशक्त् त्या च योगतः । रूढ्या श्रीशैल इत्येवं नाम चास्य गिरेरभूत् ।। ३४ ।। 'वे'कार अमृत बीच है और 'कट' का अर्थ ऐश्वर्य है, अतएव अमृत और ऐश्वर्य के संयुक्त होने के कारण यह वेंकटाद्रि कहा जाता है। किसी समय देवादि देव श्रीनिवास इस स्थान पर विराजमान थे, अतः इसको देवताओं ने श्रीनिवासाद्रि कहा । भगवान का क्रीडा-स्थान एवं आनन्द धाम होने के कारण वैकुण्ठ में रहने वालों ने इसका नाम आनन्दाद्रि रखा ! धन एवं शोभा देने के कारण तथा लक्ष्मीजी के वास-स्थान होने के कारण रूप एवं शब्द शक्ति के योग से 'श्रीशैल ऐसा इसका नाम हुआ । (३१ ३४) बहनि चास्य नामानि कल्पसेदाद्भवन्ति हि । यावदुक्ता भगवतः कल्याणगुणराशयः ।। ३५ ।। तावन्तोऽस्य गिरेः सन्ति गुणाः परमपावनाः । कल्प भेद से इसके अनेकौं नाम पड़ते जाते हैं। जितने क्रल्याण एवं गुण की राशियाँ श्री भगवान में हैं उतने ही इस पर्वत के भी परम पवित्र गुण हैं । (३५) अस्य वेङ्कटशैलस्य माहात्म्यं यावदास्ति हि ।। ३६ ।। तावद्वत् च कात्स्न्यन्न न समथश्रतुमुखः । षण्मुखश्च सहस्रास्यः फणी देवाः परे किमु ? ।। ३७ ।।