402 राजपुत्रीं समासाद्य राजन्कामातुरोऽवीत् । ममेच्छा वर्तते भद्रे सङ्गमे तव भामिनि । पतिवाक्यमुपाकण्यं पतिं प्राह प्रजापते ।। १३६ ।। है राजन ! किसी दिन अकस्मात उस ब्राह्मणकुमार ने कामातुर हो दिन में ही सम्भोग की इच्छा से राजकन्या के पास जाकर कहा कि हे भद्रे! हे भामिनि! घेरी इच्छा तेरे साथ संद करने की है । पति के वचन को सुनकर उसने कहा । (१३६) चन्द्रलेखोवाच 'शरीरमस्थिमांसाडौः पूरितं पुरुषर्षभ । शरीरेण शरीरस्य संगमः साध्वसम्मतः ।। १३७ ।। तत्रापि दिवसक्रीडामयुक्तां मुनयो विदुः । निकेतने पिता माता चाभिहोत्रश्च देवराट् ।। १३८ । । प्रभाकरप्रभां पश्य त्यज कामं द्विजात्मज वधूवचनभाकण्र्य माधवो वाक्यमब्रवीत् ।। १३९ ।। चन्द्रलेखा ने कहा-हे पुरुषश्रेष्ठ ! यह शरीर हुई, मांस इत्यादि से भरा हुआ है । शरीर के साथ शरीर झा संग सज्जन पुरुषों द्वारा सम्मत नहीं है । उसमें भी दिन के सम्भोग को मुनिवरों ने अयोग्य कहा है । घर में पिता है, अग्निहोत्र तथा इन्द्र हैं। सूर्यदेव की ज्योति को देखिये और काम का त्याग कीजिये । स्लीके इस वचल को सुनक्षर माधव ने यह बात कही । .. (१३९) “भव भामिनि ! सौख्ये मे पूरयाद्य मनोरथम् । तव स्यात्पुत्रसौभाग्यं परं पतिसलोकता ।। १४० ।। भर्तचनमाकप्र्य भर्तारं वाक्यमब्रवीत् ।। १४१ ।। ।