वराहदेवं तुष्टाव येन प्रीतोऽभवद्धरिः । आविश्य पितरं तस्य प्रोवाच मधुसूदन पिता को भूछित देखकर उसके भक्तिमान पुन्न ने वराह भगवान को स्तुति की, जिससे भगवान् प्रसन्न हो गये, और उसके पिता में आविष्ट होकर श्री मधुसूदन भगवान बोले । (१३-१४) श्रीभगवानुवाच :- १४ अहं वराहदेवेशो नित्यमस्मिन्वसाम्यहम् । राज्ञे त्वमुक्त्वा मामत्र प्रतिष्ठाप्यैव पूजय ।। १५ ।। श्री भगवानजी बोले-मैं बराह देन हूँ, और नित्य इसी में निमास करता हूँ। तुम राजा से कहकर मुझे यहाँ स्थापित कर मेरी पूजा करी । (१५) वल्मीकं कृष्णगोक्षीरैः क्षालयित्वा तदुत्थिते । शिलातले च वाराहमुधृत्य धरणीस्थितम् ।। १६ ।। कारयित्वा प्रतिष्ठाप्य विप्रैवैखानसैश्र माम । पूजयेद्विविधैभगैस्तोण्डमान् राजसत्तमः ।। १७ ।। इत्युक्त्वा तं जहौ देवः स च स्वस्थो बभूव ह । काली गाय के दूध से इस वल्मीक को धो-धोकर उससे उठी हुई (गडे) शिला में (मुझ) वराह भगवान (मूर्ति) की उखाडकर, वैखानस ब्राह्मणों से मेरी स्यापना कराकर राजसत्तम तोण्डमान मेरी पूजा नाना प्रकार की सामग्रियों से करे । यह बोलकर भगवान ने उसको छोड़ दिया (उतर गये) तब वह स्वस्थ (चैतन्य) हो गया । (१६-१७) सुखासीनं तु पितरं नमस्कृत्य निषादजः ।। १८ ।।