पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/३३५

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37 श्रीवराह उवाल :- इत्यादिश्य हयारुढो जगाम मृगयां विभुः । चरन्बनाद्वनं सुश्रुः समासाद्याऽरणीं नदीम् ।। २३ ।। अवरुह्य हयात्तत्र विचचार तटे शुभे । वनान्तादागतो वायुः प्रमकल्हारशीतलः । श्रमापनयनो मन्दं सिषेवे पुरुषोत्तमम् ।। २४ ।। तरवः पुष्षदषर्षाणि विकिरन्तः सिषेविरे । एवं स विचरन्देवः पुष्पभारनतांस्तरुन् ।। २५ ।। विचिन्वन्गजराज तं पुष्पलावीर्ददर्श ह । कन्याः सुवेषा रुचिरा मेघेष्विव शतहदाः । । २६ ।। तासां मध्यगतां तन्वीं दशतिभनोहराम् । लक्ष्मीसमां हेमवर्णा तस्यां सक्तमना अभूत् ।। २७ ।। श्री वराह जी बोले-ऐसी आज्ञा देकर घोडे पर सवार ही मगवान शिकार को चले गये और जंगल जङ्गल घूमते-घूमते आरणी नदी को पा वहीं घोड़े से उतरकर सुन्दर तीरपर विचरण करने लगे, पुनः वनन्त देश के पद्मकल्हार से शीलल वायु आकर थकावट को दूर करनेवाली मन्द-मन्द वायु तथा फूलों की वर्षा करते हुए वृक्षगण भगवान की सेवा करने लगे । इस प्रकार फूलों के भार से नवे हुए वृक्षों के पास घूमते-घूमते उस गजराज को ढूंढते-ढूंढते फूलों को तोड़नेवाले भगवान ने मेषों में बिजली के समान सुन्दर वेष तथा रूपवाली कन्थाओं एवं उनके बीच में जाती हुई अति मनोहर लक्ष्मी जी के समान सुन्दर वेष तथा रूपवाली कन्याओं एवं उनके बीच में जाती हुई अति मनोहर, लक्ष्मी जी के समान और सोने के रंगवाली एक सुन्दरी को देखा दौर उसी में अशक्त हो गये । (२३-२७) तां गृध्नुराह ताः कन्याः 'केय'मित्येव पूरुषः । उक्तस्ताभिरियं कन्या वियद्राज्ञो महाबल !' ।। २८ ।।