283 द्वितीयोऽध्यायः श्री सूत उवाच :- श्रुणुध्वं मुनयः सर्वे कथां पुण्यां पुरातनीम् । वैवस्वतेऽन्तरे पूर्व कृते पुण्यतमे युगे ।। १ ।। श्रीवराहमन्त्राराधानविधिः नारायणाद्रौ देवेशं निवसन्तं क्षमापतिम् । वराहरूपिणं देवं धरणीसखिभिर्तृता । प्रणम्य परिपप्रच्छ रक्तपञ्चायतेक्षणम् ।। २ ।। ध णी से वाराह का, मन्त्र वराह बरवान । मन्त्र प्रभावहि धर्म मनु, इष्टसिध्युपारख्यान ।। १ ।। ६धरपयुवाच :- आराधन विधि मन्त्र का, विस्तृत श्री वाराह । इस द्वितीय अध्याय में, शिक्षा कीन्ह प्रवाह ।। २ ।। श्री सूतजी बोले-हे सकल मुनिवगर्यो । आप लोग प्राचीनकाल की परम पुण्य प्रद कथा सुने । अत्यन्त प्राचीन काल में वैवस्वतमन्वन्तर के अन्तर्गत परमपुण्यतम कृतयुग में श्रीनारायणपर्वत पर निवास करनेवाले एवं रक्तकमल के समान दीर्घ आंखवाले वराहरूप क्षमापति भगवान को सखियों से आवृत होकर श्री पृथ्वी देवी प्रणाम कर पूछने लगी । (१-२) श्रीवराह मन्त्राराधन विधि आराध्यः कैन मन्त्रेण भवान्प्रीतो भविष्यति । तं मे वद त्वं देवेश यः प्रियो भवतः सदा ।। ३ ।।