237 से युक्त शंखचक्रवरायुध धारण किये पुण्डरीकाक्ष, हंसते हुए मुखकमलयुक्त दयामृतसागर, कृपातरङ्ग के कारण, मनोहर एवं मन्दहास्थयुक्त मुखवाले भगवान श्री वेङ्कटेश के दर्शन तथा प्रणाम करके, नाभावलि पाठ से स्तुतिकर, कमलों से पूजा कर, अत्यन्त दुर्लभ-दुर्लभ अपने अभीष्ट प्राप्त कर कृतकृत्य हो, पुनः लौट अश्वे 1 यह सुनकर मुनियों ने श्री सूतजी की अनुमति लेकर तया परम आनन्दित होकर प्रस्थान किया । (८-१५) भरद्वाजः कौशिकञ्श्र जाबालिरथ काश्यपः ।। १६ ।। ऋतुर्दक्षः पुलस्त्यश्च गौतमः पुलहस्तथा । आङ्गीरसो देवलश्च देवदर्शन एव च ।। १७ ।। कौत्सः कण्वो मृकण्डुश्च शतानन्दो महामुनिः । मैत्रेयप्रमुखास्तत्र सङ्गता ये तपोधनाः ।। १८ ।। घुष्यन्तः सङ्कशश्चोच्चैः गोविन्देति पुनः पुनः । तीत्व भागीरथीं पश्राद्वैौतमीं कृष्णवेणिकाम् ।। १९ ।। तत्र तत्र महानद्यां स्नात्वा स्नात्वा तपोधनाः । वेङ्कटाद्रि समागत्य तप्तजाम्बूनदात्मकम् ।। २० । सर्चतीर्थमयं पुण्यं सर्वसिद्धनिषेवितम् । मदमञ्जुलभायूरकेकास्वनमनोहरम् ।। २१ ।। दिव्यनिर्शरसम्पूर्ण फलपुष्पैद्रुमैर्युतम् । अनतिक्रम्य सूतोक्तसेवाक्रममिमे बुधाः ।। २२ ।। चक्रुः श्रीवेङ्कटेशस्य सेवां परमपावनीम् ।. महामुनि भरद्वाज, कौशिक, जाबालि, कश्यप, क्रतु, दक्ष, पुलस्त्य, गौतम, पुलह आंगिरस, देवल, देवदर्शन, कौत्सं, कण्व, मृकण्डू, शतानन्द तथा मैत्रेय प्रमुख जितने तपोधन महर्षिवून्द वहां गये थे, सभी खूब ऊँचे स्वर में 'गोविन्द' ऐसा नाम