ज्वालामुखाय ते सर्वे प्रोचुरेवं पदातयः । चक्रराज से इस प्रकार आजा पाकर उस महाबली ज्वालामुख ने परम दारुण एवं घोर महायुद्ध किया और उनकी सेना को मदमत्त हाथी के समान तिर-बितर कर दिया । वनचर, चोर सभी छिन्न-भिन्न हो, शस्त्रायुधों को त्यागकर भयभीत हो भाग गये तथा समर भूमि को छोड़कर पर्वतों की चोटियों तथा जंगलों में छिप गये और वहाँ के वनप्रदेश में कोई जन भी नहीं दीख पड़ा । तब सुदर्शन के अनुचरों ने गम्भीर होकर उन सबों को पर्वत तया वन के दुगों, चोटियों, बड़ी-बड़ी कन्दराओं, कुओं, कुटियों तथा गुफाओं आदि सभी स्थानों में खोज डाला ; परन्तु किसी को भी न देख बाहर निकलकर आश्चर्यान्वित हो ज्वालामुख से सध हाल कह विस्मितः सोऽपि तां मायां ज्ञात्वा परमदुर्जयः ।। ३८ ।। तद्देशवासिनः साधूनाहूयेदं वचोऽब्रवीत् । 'इमं देशं विसृज्याशु गन्तव्यं देशमन्यकम् ।। ३९ ।। क्षणभात्रा' दिति प्रोक्त्वा जग्राह परमं धनुः । अस्त्रं च सन्दधे तस्मिन्नाग्नेयं मन्त्रवत्तदा ।। ४० |३४-३७) प्रजज्वाल व तद्दिव्यमस्त्रं परमभास्वर कृशानवस्तदस्त्राच्च निष्पेतुश्च सहस्रशः ।। ४१ ।। परम दुर्जेय ज्वालामुख भी उनकी माया जानकर परम विस्मित हो, उस देश के निवासियों तथा साधुओं को बुलाकर यह वचन बोला कि शीघ्र उस देश को छोड़कर आप लोगों को अभी ही दूसरे देश में चला जाना चाहिए । उन्होंने ऐसा कहकर परम उत्कृष्ट धनुष धारण किया और उसपर आग्नेय अस्त्र को मन्त्र के साथ चढाया ! यह परम तेजोमय दिव्यास्त्र प्रज्वलित हो उठा । उस दिव्यास्त्र से हजारों व्यङ्गारे निकलने लगे । (३८-४१) विचुक्रुशुश्च भूतानि चुक्षुभुस्सागरास्तदा .. 'अन्तर्धानं गता यत्र चोरास्तिष्ठन्ति वञ्चकाः ।। ४२ ।।