137 उस उत्सव में सब दिक्पाल, सब देवता, सत्र धर्मात्मा, राजा, ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य, शूद, अन्यजादि अनेक जातियाँ, समुद्र और बन में रहनेवाले, अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, ओोडिया, गौड, काश्मीर, चोल, माल, कोशल, पांडप, कुश आदि सब देशों के मनुष्य सपरिवार निमंत्रित होकर इकट्ठे हो “गोविन्द-गोविन्द' नाम धोष करते हुए आये । तदनन्तर योगियों के भी अदम्य परात्पर भगवान ने, सव जीवों के ऊपर दयाकर सब के दृष्टिगोचर में प्रत्यक्ष होकर ब्रह्माजी के किये हुए महोत्सव को स्वीकार किया । (३४-४२) उत्सवे दर्शनं पुण्यं श्रीनिवासस्य शाङ्गिणः' ।। ४३ ।। इति ब्रुवन्तस्ते सर्वे मध्येमार्ग जनास्तथा । चक्रुः पानीयशालाश्च विविधान्नगृहाणि च ।। ४४ ।। वाहनानि च वासांसि छत्राण्याभरणानि च । पादुकाश्च जनाः सर्वे दधतः सर्वदैव हि ।। ४५ ।। नृत्यन्तो वादयन्तश्च गायन्तश्च परस्परम् । आजग्मुः सेवितुं सर्वे वेङ्कटाह्वयभूधरम् ।। ४६ ।। महोत्सव में “श्रीनिवास, बिष्णु का दर्शन महापुण्यप्रद है ” । ऐसा कहते हुए सब लोगों ने रास्ते में पानशालायें तथा अन्नशालायें बनवायी वाहन, कपड़े, छत्र, आभरण तथा पादुका को लेते हुए सब लोग सर्वदा नाचते, गाते, बजाते, आपस में आलिङ्गन करते हुए थीवेङ्कटेश नामक पर्वत के निकट सेवा करने के लिए आ गये । (४३-४६) ब्रह्मा च कारयामास समागतजनान्प्रति । विश्वकर्माणमाहूय समर्थ शिल्पिनां वरम् ।। ४७ ।। 18 अन्नशालाश्च विविधाः प्रपाश्च बहुधा तदा । उपकार्याश्च बहुधा कारितास्तत्र तत्र वै ।। ४८ ।।