पृष्ठम्:श्रीवेङ्कटाचलमहात्म्यम्-१.pdf/११७

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99 चतुर्दशोऽध्यायः श्रीभगवदाविर्भावघट्टः सूत उवाच :- वसिष्ठोऽपि महातेजाः राजानमिदमब्रवीत् । श्रूयतां राजशार्दूल ! ब्रह्मा लोकपितामहः ।। १ ।। अयमत्र तपस्तीत्रं करोति मुनिभिः सह । अचिराच्छीपतिर्विष्णुराविर्भूतो भविष्यति ।। २ ।। त्वमप्यत्र शुचिर्भूत्वा स्नात्वा पुष्करिणीजले । जपं कुर्वन्महीपाल ! निवस त्वमिहैव भोः' ।। ३ ।। पुत्र हेतु दशरथनृपहिँ, ऋषि वसिष्ठ उपदेश । बेङ्कटाद्रि दोउ तप प्रकट, ध्वनि सह तेज अशेष ।। १ ।। तेज भध्य सुन्दर परम, मण्डपस्थ प्रभु यान । चकित सबन से विधि कथन, प्रभुमन्दिर निर्मान ।। २ ।। पुनि सब का विधि संग में, प्रभुमन्दिर परवेश । चौदहवें अध्याय में, वर्णित कथा अशेष ।। ३ ।। श्रीभगवत आविर्भाव श्री सूतजी बोले-महा तेजस्वी वसिष्ठजी ने महाराजा दशरथ से कहा कि हे राजशार्दूल! यहाँ ब्रह्माजी भुनियों के साथ परम उग्र तपस्या कर रहे हैं, जिससे श्रीपति विष्णु भगवान बहुत शीघ्र आविर्भूत होंगे । अतः आप भी पुष्करिणी के जल में स्नानकर, पवित्र हो जप करते हुए, यहीं निवास कीजिये । (२-३) इत्युक्तः प्राह राजापि मन्त्रं कञ्चित्प्रयच्छ भोः'। इति पृष्ठो वसिष्ठश्च प्रादात्मन्त्रमनुत्तमम् ।। ४ ।।