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श्रीविष्णुगीता।


यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम् ।
तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम् ॥ ११० ॥
विषयेन्द्रियसंयोगादयत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम् ॥ १११ ।।
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः ।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम् ॥ ११२ ॥
नियतस्य तु सन्न्यासः कर्मणो नोपपद्यते ।
मोहात्तस्य परिसात्यागस्तामसः परिकीर्तितः॥११३ ॥
दुःखमित्येव यत्कर्म कायक्लेशभयात्त्यजेत् ।
स कृत्वा राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ॥ ११४ ॥
कार्यमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेऽमराः ।
सङ्गं त्यक्त्वा फलं चैव स त्यागः सात्त्विको मतः ॥११५॥


परमानन्द लाभ करता है और दुःखकाअन्त प्राप्त करता है,वह आदिमें विषवत् किन्तु परिणाममें अमृततुल्य और आत्मबुद्धिके प्रसादसे उत्पन्न सुख सात्त्विक कहाजाता है॥१०६-११०॥विषय और इन्द्रियों के संयोगसे आदिमें अमृततुल्य किन्तु परिणाममें विषतुल्य सुख राजस कहाजाता है ॥१११॥ निद्रा आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न एवं आदि और अन्त में चित्तमें मोह उत्पन्न करनेवाला जो सुख है उसे तामस कहते हैं ॥ ११२ ॥ नित्यकर्मका त्याग नहीं हो सक्ता, मोहवश जो नित्यकर्मका त्याग होता है उसे तामस त्याग कहते हैं ।। ११३॥ जो व्यक्ति "दुःख होता है। ऐसा जानकर दैहिक क्लेशके भयसे कर्म त्याग करता है वह राजस त्याग करके त्यागका फल नहीं प्राप्त करता है ॥ ११४ ॥ हे देवतागण ! इन्द्रियसङ्ग और फलका त्याग करके " कर्त्तव्य" जानकर जो नियमपूर्वक कर्म किया जाता है वह त्याग सात्त्विक त्याग मानागया है॥ ११५ ॥