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श्रीविष्णुगीता।


सर्वानेतान्विनिर्दिष्टे नियमे परिचालयन् ।
एक एवाऽस्ति धर्मोऽतो जगतां स नियामकः ॥ ६२ ॥
प्रकृतेर्मे वशं याता मूढा जीवगणा हि ये।
क्रमशो मां समायान्ति निश्चितं विबुधोत्तमाः ॥६३॥
विशिष्टचेतना जीवास्तद्वन्मामेव चाऽऽश्रिताः।।
मां प्रत्यग्रेसराः सन्तो मामेवायान्ति वै क्रमात् ॥ ६४॥
अतः कर्म द्विधा मुख्यं सहजं जैवमेव च।।
तस्मात् कर्मविदो धीरा धर्म कर्मेति संजगुः ॥ ६५ ॥
एवं यज्ञस्तथा धर्म उभौ पर्यायवाचकौ ।
कथितौ वेदनिष्णातैः शास्त्रज्ञैः शास्त्रविस्तरे ॥ ६६ ॥
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन जीवा राध्यन्तामसावस्त्विष्टकामधुक ।। ६७ ॥
भावयन्तु हि वोऽनेन भवन्तो भावयन्तु तान् ।


इनसबको निर्दिष्ट नियम पर चलानेवाला एकमात्र धर्म है इस कारण धर्मको जगन्नियन्ता कहते हैं ॥ ६०-६२ ॥ हे देवश्रेष्ठगण ! मेरी प्रकृतिके अधीन रहकर मूढ़ जीवगण क्रमशः मुझको निश्चित ही प्राप्त होते हैं ॥ ६३ ॥ और उसी प्रकारसे मुझे ही आश्रय करके विशिष्टचेतन जीवगण क्रमशः मेरी ओर अग्रसर होते हुए मुझको ही प्राप्त करते हैं ॥ ६ ॥ इसी कारण कर्म सहज और जैव रूपसे प्रधानतः दो प्रकारका कहाता है । कर्मके जाननेवाले महापुरुषगण इसीसे धर्मको कर्म नामसे अभिहित करते हैं ॥ ६५ ॥ इसी प्रकारयज्ञ और धर्म दोनों पर्यायवाचक शब्द है इस बातको वेदनिष्णात शास्त्रज्ञोने शास्त्रविस्तारमें कहा है ॥६६ ॥ सृष्टि के प्रारम्भमें यज्ञके साथ ही साथ प्रजाओं को उत्पन्न करके प्रजापतिने कहा, " इससे जीवगण आराधना करें, यह उनलोगोका अभीष्टप्रदानकारी हो, ॥ ६७ ॥ हे देवगण ! जीवगण इसके द्वारा आपलोगोंको सम्वर्द्धित