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श्रीविष्णुगीता।


इयं सृष्टिः किमाधारा तथाऽस्याः को नियामकः ।
आलम्ब्य कमिमे जीवाः परिणाममयीमिमाम् ॥ ४८॥
सृष्टिं जयन्तो ह्यर्हन्ति प्राप्तुं त्वां मोक्षदायिनं ।
ज्ञानानन्दप्रदं नित्यं भक्ताभीष्टफलप्रदम् ॥ ४९ ।।

महाविष्णुरुवाच॥१०॥

धर्माधारा स्थिता सृष्टिः स एवास्या नियामकः ।
केवलं धर्ममेवैकमाश्रित्य जीवजातयः॥५१॥
अग्रेसरा भवन्तीमा मां मत्येव न संशयः।
ममानुशासनं धर्म इति तत्त्वविदो विदुः ॥५२॥
जगन्नियामिका शक्तिधर्मरूपाऽस्ति या मम ।
तया ह्यनन्तब्रह्माण्डान्यनन्ता लोकराशयः ॥ ५३ ॥ ।
ऋषयः पितरो यूयं स्वस्वस्थाने स्थिताः सदा।
रक्षन्ति सृष्टिमखिलामिति जानीत सत्तमाः ॥५४॥


अब कृपा करके यह बताइये कि यह सृष्टि किस आधारपर स्थित है और सृष्टिका नियामक कौन है और किसको अवलम्बन करके इस परिणाममय सृष्टिको जय करते हुए जीव, ज्ञानानन्दप्रद नित्य भक्ताभीष्टफलप्रद और मोक्षदायी आपको प्राप्त कर सकते हैं ।। ४७-४६॥

महाविष्णु बोले ॥ ५० ॥

 सृष्टि धर्मके आधारपर स्थित है, सृष्टिका नियामक धर्म ही है और एकमात्र धर्मको ही अवलम्बन करके ये जीवगण मेरी ओर ही अग्रसर होते हैं इसमें सन्देह नहीं। मेरा अनुशासन धर्म है ऐसा तत्वज्ञ समझते हैं ॥५१-५२ ।। मेरी जगन्नियामिका शक्तिरूप धर्मसे अनन्त बहाण्डसमूह, अनन्त लोकसमूह और ऋषि देवता पितृगण अपने २ स्थान पर सदा स्थित रहकर सम्पूर्ण सृष्टिकी रक्षा करते हैं, हे श्रेष्ठ देवगण इसको जानो॥ ५३-५४॥ हे देवगण !