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श्रीविष्णुगीता।


तथोपदेशं याचामो ज्ञातुं स्मर्तुञ्च तत्त्वतः ।
त्वां शक्ताः स्मो यथा मोहे न पतामः पुनः क्वचित् ॥ ६४ ॥
विश्वासो नो ध्रुवो जातो यत्त्वां संस्मरतां सदा ।
अस्माकं निखिला भीतिस्तापोऽभावश्च नँक्ष्यति ॥ ६५ ॥
त्वां सदा स्मरतां नूनमुद्यमो नः फलिष्यति ।
सर्वे मनोरथाः सिद्धा भविष्यन्ति नमोऽस्तु ते ॥ ६६ ॥

महाविष्णुरुवाच ॥ ६७।।

युष्माकं स्तुतिभिर्देवाः ! प्रसन्नोऽस्मि ततस्त्वहम् ।
श्रेयसे वो यथायोग्यं ब्रवीमि वचनं शुभम् ॥ ६८ ॥
सदाचारच्युता यूयं भवथ स्म दिवौकसः ।
स्वकर्तव्यं स्वधर्मञ्च भवन्तो व्यस्मरऊच्छुभम् ॥ ६९ ॥
अत एव समाक्रामच्चित्तं वो मोहजं भयम् ।
तापोऽयोग्यप्रवृत्त्युत्थोऽभावो मत्स्मृतिनाशतः ॥ ७० ॥


शरण आये हैं जिससे हमारा मोहजनित भय नाश हो जाय ऐसा आप करें॥ ६३॥ ऐसे उपदेशकी हम आपसे याचना करते हैं जिससे हम आपको तत्त्वरूपसे जाननेको और स्मरण करनेको समर्थ होसके और पुनः कभी मोहमें न पड़े ॥ ६४ ॥ हम लोगोंको ठीक विश्वास होगया है कि आपको सदा स्मरण करनेसे हमारे सब भय त्रिविध ताप और अभाव नाश होजायेंगे ॥ ६५ ॥ आपको सदा स्मरण करनेसे निश्चय ही हमारा पुरुषार्थ सफल होगा और हमारे सब मनोरथ सिद्ध होंगे, आपको प्रणाम है ॥६६॥

। महाविष्णु बोले ॥ ६७ ॥

  हे देवतागण ! मैं तुम्हारी स्तुतिसे प्रसन्न हुआ इस कारण तुम्हारे कल्याणके लिये में यथायोग्य शुभ वचन कहता हूँ॥६॥ तुम लोग सदाचारभ्रष्ट होगये हो इस कारण तुम मंगलमय निज कर्तव्य और स्वधर्मको भूल गये हो ॥ ६६ ॥ इसीसे तुम्हारे चित्तपर मोह.