पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१७०

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१५० श्रीविष्णुगीता।

मर्त्यलोके पुनश्वास्याः कृष्णरूपेण वै सुराः ! ॥ १०७॥ द्वापरान्तेऽवतीर्या गीताया ज्ञानमुत्तमम् । प्रचार्य पूरयिष्यामि भवतां शुभकामनाः ॥ १०८ ॥ सर्वोपनिषदां सारो वेदनिष्कर्ष एव च । योगयुञ्जानचित्तानां गीतेयं ज्ञानवर्तिका ॥ १०१ ॥ त्रितापतापितानाञ्च जीवानां परमामृतम् । संसारापारपाथोधौ मज्जतां तरणिः परा ॥ ११० ॥ क्षिप्रमाध्यात्मिकस्तापो पठनात्पाठनादपि । नश्यत्यस्या न सन्देहस्तथैतद्वारतोऽमराः ! ॥ १११ ।। विश्वम्भराख्ययागस्य विधानेनाधिदैविकः । आधिभौतिकतापश्च पाठादस्याः प्रणश्यति ।। ११२ ।। अस्याश्च विष्णुगीताया माहात्म्यं महदद्भुतम् । गीतेयञ्च मुमुक्षूणामात्मज्ञानमभीप्सताम् ।। ११३ ।। । विष्णुगीता नामसे प्रख्यात होगी और इस गीताके उत्तम ज्ञानको मैं पुनः द्वापर के अन्तमें मनुष्यलोकमें कृष्णरूपसे अवतीर्ण होकर प्रचारित करके आपकी शुभ कामनाओंको पूर्ण करूंगा ॥१०७-१०॥ यह गीता सब वेदोंका निष्कर्ष, उपनिषदोंका सार और योगाभ्यास- निरत व्यक्तियोंके लिये ज्ञानप्रदीप है ॥ १०६ ॥ त्रितापतापित. जीवों के लिये यह परम अमृतरूपा है । संसार महासागरमें डूबनेवालोंके लिये उत्तम नौका है ॥ ११० ॥ इसके अध्ययन अध्यापन द्वारा अवश्य आध्यात्मिक ताप शीघ्र नष्ट होता है और इसके द्वारा हे देवगण ! विश्वम्भरयाग करनेसे आधिदैविक ताप और इसके पाठ करने और करानेसे आधिभौतिक ताप नष्ट होता है ॥१११-११२॥ इस विष्णुगीताका माहात्म्य महान् अद्भुत है, यह गीता संसारसे वैराग्यवान आत्मज्ञानेच्छु मुमुक्षु सन्न्यासियों के लिये गुरुरूप और मुक्तिप्रद है, ब्रह्मचारी और गृहस्थोंके लिये यह गीता धर्म अर्थ