पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१४१

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श्रीविष्णुगीता। १३१ मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन् गर्भ दधाम्यहं । सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति निजर्राः । ॥ ८९ ॥ सर्वयोनिषु भो देवाः ! मूर्तयः सम्भवन्ति याः । तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजपदः पिता ।। ९० ॥ पञ्चैतानि सुरश्रेष्ठाः! कारणानि निबोधत । सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि सिद्धये सर्वकर्मणाम् ॥ ९१ ॥ अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणञ्च पृथग्विधम् । विविधाश्च पृथक् चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम् ॥९२ ॥ शरीरवाङ्मनोभिर्यत् कर्म प्रारभ्यते खलु । न्याय्यं वा विपरीतं वा पश्चैते तस्य हेतवः ।। ९३ ॥ तत्रैवं सति कर्तारमात्मानं केवलन्तु यः। पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न स पश्यति दुर्मतिः ॥ ९४ ॥ 1 दुःख अनुभव करते हैं ॥ ८॥ हे देवगण ! महब्रह्म अर्थात् मूलप्रकृति मेरी योनि (गर्भाधानका स्थान ) है, उसी में में गर्भा- धान करता हूं उससे सब भूतोकी अर्थात् ब्रह्मा आदिकी उत्पत्ति होती है ।। ८६॥ हे देवगण ! सब योनियों में जो (स्थावर जङ्गम रूपी) मूर्तियां उत्पन्न होती है महब्रह्म अर्थात् मूलप्रकृति उनकी योनि अर्थात् मातृस्थानीय है और मैं बीजप्रद (गर्भाधानकर्ता) पिता हूं ॥६० ॥ हे सुरश्रेष्ठो! सब कर्म्मोकी सिद्धिके लिये ज्ञान- प्रतिपादक शास्त्रमें कहे हुए वक्ष्यमाण पांच कारणोंको जानो ॥९॥ इस संसार में अधिष्ठान (शरीर) कर्ता (अहङ्कार) अनेक प्रकारके करण (चक्षुरादि इन्द्रियां) नानाविध चेष्टा अर्थात् प्राण अपान आदिकी क्रियाएँ और दैव पाचवां है ।। ६२॥ शरीर, वाक् और मन द्वारा जो धर्म अथवा अधर्म कर्म कियाजाता है, पूर्वोक्त ये ही पांच उसके हेतु है ॥ ९३॥ ऐसा होने पर उक्त विषयमें जो व्यक्ति केवल (निःसङ्ग) आत्माको कर्ता समझता है, अनिर्मल बुद्धि होनेके कारण वह दुर्मति ( अविवेकी) देख नहीं सकता है अर्थात्

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