पृष्ठम्:श्रीविष्णुगीता.djvu/१३७

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श्रीविष्णुगीता। ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते । अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ॥ ६४ ॥ सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् । सर्वतः श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति ॥ ३५॥ सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम् । असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ॥६६॥ बहिरन्तश्च भूतानामचरं चरमेव च । सूक्ष्मत्वात्तदविज्ञेयं दूरस्थं चान्तिके च यत्।। ६७॥ अविभक्तञ्च भूतेषु विभक्तमिव च स्थितम् ।। भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं ग्रसिष्णु प्रभविष्णु च ॥ ६८॥ । ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते । ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य धिष्ठितम् ।। ६९ ।। इति क्षेत्रं तथा ज्ञानं ज्ञेयं चोक्तं समासतः । जो ज्ञेय है उसको कहूंगा जिसको जानकर (साधक ) मोक्ष प्राप्त करता है । वे अनादि परब्रह्म सत् भी नहीं कहेगये हैं और असत् भी नहीं कहगये हैं ॥ ६४ ॥ वे ( ब्रह्म) सर्वत्र पाणि, पाद, नेत्र, मस्तक, मुख और कर्णविशिष्ट होकर संसारमें सबको आवृत करके ठहरे हुए हैं ॥ ६५ ॥ ( वे ) सब इन्द्रियोंके गुणोंके आभाससे विशिष्ट, सब इन्द्रियोंसे रहित, सङ्गशून्य, सबोंके आधारभूत, गुणोंसे रहित और गुणोंके भोक्ता हैं॥६६॥ जो जीवोके बाहर और भीतर हैं.चर भी हैं और अचर भी हैं, सूक्ष्म होनेके कारण अविज्ञेय हैं तथा जो दूर भी हैं और समीप भी हैं॥६७॥ जो भूतोमे अविभक्त होनेपर भी विभक्तकी न्याई अवस्थित हैं और वे भूतोंके पालक,संहारक तथा उत्पादक भी हैं ऐसा जानो।68।वे ज्योतियोंकी भी ज्योति है और अज्ञानसे परे स्थित कहेजाते हैं तथा वे ज्ञान,ज्ञेय ज्ञानसे प्राप्त करने योग्य और सबके हृदय में अवस्थित हैं ॥ ६६ ॥ इस प्रकारसे क्षेत्र, ज्ञान और ज्ञेय