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सर्गः
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श्लोकः
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उदभवतनुतोऽस्य |
III |
30
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उद्देिश्य सेतुमनव |
IX |
17
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उद्याच्छिरोलम्बि |
X |
19
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उद्वाह्य शास्त्रविधिना |
I |
30
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उपगतौ भिषजौ |
XI |
141
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उपचितसुरभि |
X |
50
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उपनयं किल |
XI |
120
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उपनिविश्य ततो |
III |
12
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उपवनेषु वनेषु |
III |
88
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उपांशशु स्थितवान् |
III |
82
|
उपससार |
III |
113
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उपात्तभिक्ष |
V |
12
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उपात्तहस्त्ः |
XII |
17
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उपादिशह्ह्मपदं |
IV |
96
|
उपेक्षमाणेऽपि |
X |
5
|
उभयमेतदपि |
X |
89
|
ऊ
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ऊचेऽथ तं |
VIII |
39
|
ऊरू यदीयौ |
VIII |
39
|
ए
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एकश्शाखी |
XII |
83
|
एकाक्षरस्यापि |
V |
31
|
एकाम्रनाथं |
VIII |
1
|
एणैस्सशावैः |
X |
20
|
एतत्प्रभाप्रतिहत |
VI |
55
|
एतां सुतां सुतनया |
VI |
33
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एतावदुक्त्वा |
V |
37
|
एतावदेव |
X |
75
|
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सर्गः
|
श्लोकः
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एते पुरा नगदिताः |
X |
109
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एवं कलत्रवचनं |
IV |
2
|
एवं क्रमादार्तव |
XI |
78
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एवं गुरौ वदति |
I |
17
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एवं निरुत्तरपदां |
XII |
82
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एव पुराणगुरुणा |
VII |
27
|
एवं प्रिये |
I |
40
|
एवं फलप्रद |
IV |
1
|
एवं मिथः |
VI |
53
|
एव यतात्मा |
IX |
92
|
एवंवादिनि मण्ड |
V |
45
|
एवंविधेन क्रियते |
VII |
42
|
एवं विशिष्टनुतिभि |
IX |
83
|
एवं शरीरादि |
VII |
9
|
एव सदा |
VII |
45
|
एवं सनाभिजन |
IV |
55
|
एवं खबन्धुगदिता |
IV |
37
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एवमेनम्नुनीय |
V |
47
|
एष्यद्विजानासि |
IV |
74
|
ऐ
|
ऎतिह्ममाश्रित्य |
VIII |
76
|
ओ
|
ॐ कर्णिकासन |
VIII |
136
|
औ
|
औत्तानपादिः किल |
II |
19
|
क
|
कः प्राश्निको ह्ं |
VI |
88
|
कठोरभावात् |
XI |
69
|
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