पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/९९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
९७
अ. १ आ. १ सू. ८

तथा दग्धस्य विस्फोटने ॥ १३ ॥

जैसे दग्ध हुए (अङ्ग' के उभरने में प्रयत्र हेतु नही,दिन्तु वेग वाले आग्र का संयोग हेतु है जैसे दग्ध हुई वस्तु के फूटने अर्थात् टुकड़ों के उडने में अ'िसैयोग कारण होता है)

यलाभावे प्रसुप्तस्य चलनम् ॥ १३ ॥

यत्र के अभाव में मूर्छित का चलना होता है मूर्छित के जो हाथ पाओं आदि चलते हैं वे भी बिना भयत्र के वायु विशेष के संयोग से ही चलते हैं)

सै-शरीर के कम की व्याख्या करके, उस से भिन्न कर्मो की’ व्याख्या करते है

तृणे कर्म वायुसंयोगात् ॥ १४ ॥

.. (वायु में उड़ते हुए तृण में कर्म वायु के संयोग से होता है

मणिगमनं सूच्यभिसर्पण मित्यदृष्ट. कारण कम् ॥ १५ ॥

(तृणों का-तृणकान्त-) मणि की ओर चलना, और ( 'सूई का (चुम्बक की ओर) चलना, ये अदृष्ट कारण वाले हैं ( अर्थात् अन्यत्र गति में जो प्रयत्र और नोदन कारण देखें हैं, उन में से कोई कारण नहीं, यहाँ वस्तु शाक्ति ही ऐसी है, जो उस २ से वह २ वस्तु खींची जाती है)

इषा वयुगपत् संयोगविशेषाः कर्मान्यत्वे . हंतुः १६

वाण में न एक साथ (अर्थात् क्रम २ से ) उत्पन्न हुए जो संयोग विशेष हैं, वे कर्म के नाना होने में हेतु हैं।(, धनुष