अ०२ आ०२८ सू०५७
सिद्धहो गया, तो आशुविनीशी होना कर्मके साथ उसका साधम्र्यं माना जा सकता है, न कि कर्मत्व ही ।
सगति-(प्रश्झ) पूर्वोक्त साधम्यै तब माना जाय, जव शब्द का विनाश होना हो, पर शब्द तो उत्पत्ति विनाश दोनों से रहित है। वह सदा विद्यमान रहता है। उञ्चारण से उस की उत्पत्ति नहीं होती, किन्तु पूर्व विद्यमान की ही अभिव्यक्ति होती है, जैसे अन्धेरे में विद्यमान घट की दीपक से अभिव्यक्ति होती है, इस आशंका का उत्तर देते हैं
सतो लिंगा -भावात् ॥ २६ ॥
विद्यमान के लिङ्ग का अभाव होने से ।
व्या-उच्चारण से पूर्व शाब्दःकी विद्यमानता का कोई लिङ्ग नहीं । अतएवं उस के विद्यमान होने में कोई प्रमाण नहीं ।
संगति-साधक का अभाव, कह कर बाधक भी कहते हैं
नित्यवैधम्र्यात् ॥ २७ ॥
नित्य से विरुद्ध धर्म वाला होने से ।
व्या-नित्य का विनाश नहीं होता, और शब्द का विनाशा प्रत्यक्ष सिद्ध है, इस प्रकार नित्य के विरुद्ध धर्म वाला होने से शब्द अनित्य है।' .
• ,दूसरा-एक ही शब्द की उत्पत्ति चैत्र से विलक्षण और मैत्र सविलक्षण होती है। अतएव अन्धेरे में उनके, अपने २ शब्द से हीचैत्र और मैत्र का ज्ञान हो जाता है। अभिव्यक्ति में यह बात नहीं पाई जाती. ऐसा नहीं होता, कि घड़ा एक दीपक से विलक्षण और दूसरे से विलक्षण प्रतीत हो1ः अतएव घड़े की ओभिव्यक्ति से दीपक के भेद का अनुमान नहीं होता, पर