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अ. १ आ. १ सू. ८

सति च कार्यादर्शनात् ॥ ५ ॥

होते हुए भी कार्य कें न देखने से।

व्या-ज्ञान के कारण, .जो विषयइन्द्रियसम्वन्ध वा लिङ्गः ज्ञान है, उन के होते हुए भी कार्य जो सुख और दुःख है, उस का अनुभव नहीं होता है। यदि ये ज्ञान के भेद होते, तो ज्ञान की सामग्री होने पर अवश्य अनुभव होते ।

एकार्थे समवायि कारणान्तरेषु दृष्टत्वात् ६॥

एकार्थे समवायि' जो और कारण हैं, उन के होते हुए देखने सें ।

ज्या-ज्ञान का समवायी जो आत्मा है, उसमें जब तक राग द्वेष आदि (मुख दु:ख के कारणान्तर) न हों, तब तक सुख दुःख-की उत्पत्ति नहीं होती। यदि ज्ञान रूप ही होते, तो ज्ञान की सामग्री से अधिक सामग्री की अपेक्षा न रखते ।

सगति-यदि-कारण के भेद से कार्य का भेद होता है, तो एक ही वीर्य ओर शोणित से हाथ पैर सिर आदि विलक्षण अंगों की उत्पत्ति कैसे होती है ? 'इस का उत्तर देते है। –, ' ' ।

एकदेश इत्येकस्मिन् शिरः पृष्ठमुद्रै मर्माणि तद्विशेषस्तद्विशेषेभ्यः ॥ ७ ॥

उस के विलक्षण अङ्ग हैं,चे विलक्षण कारणों सें होते हैं(अपद एक ही वीज में विलक्षण अवयव ही विलक्षण कार्यो के आर अध्ट ऐोखें हैं)