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पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/१५

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अ. १ आ. १ सू. ३

के आश्रितं प्रतीत हो, उसको धर्मकहते हैं, और जो उसः का आश्रय है, उस को धर्म कहते हैं। गन्ध-ध हैं, क्योंकि वह पुष्पके'आश्रित प्रतीत होता है, पुष्पधर्मी है, क्योंकि गन्ध उस के आश्रय है। दौड़ना धर्म है, क्योंकि वह घोड़े के आश्रित प्रतीत होता है, घोड़ा धर्मी है, क्योंकि वह दौड़ का आश्रय है। गन्ध में भी-गन्धपना धर्म है, क्योंकि वह गन्धे प्रतीत होता है, गन्ध धर्मी है, क्योंकि. उसमें गन्धपन'प्रतीत होता है । सो गन्ध पुष्प का धर्म है, पर गन्धपन को धर्म भी है। इसी प्रकार संर्वत्र धर्मधर्मिभाव जांनना । जो अनेकों का सांझा धर्मे हो; उस को साधम्ये वा समान धर्म कहते हैं, जैसें'गन्ध पुष्प और इतर का साधम्यै=समान धर्म है। और जो अपना विषेश धर्म हो; उस को वैधम्ये वा विशेष धर्म वा विरुद्ध धर्म कहते है; जैसे पंखड़ियां पुष्प का इतर से वैधम्र्ये है, और द्रवत्व इतरं का पुष्प से वैधम्र्य है। इस प्रकार संधिम्र्य और वैधम्र्य द्वारा जव समस्तं पदार्थो का तत्त्वज्ञान हो जाता है, तब पुरुष मुक्त होता है। इसलिए इस शास्त्र में समस्तूपदार्थो और उनके धर्मो का निरूपण आरम्भ करत हैं ।

यहां छः पदार्थो का कथन भाव पदार्थो'कें. आभप्रायसें है, वस्तुतः अभाव भी एक अलग पदार्थ के रूप में मुनि को. अभिप्रेत हैं, अतएव कारणाभावात् कार्याभावः' (१४। २-५-१);' औरं * क्रियागुणेव्यपदेशाभावात्” प्रागसंव' (९ । १ । १ ) इत्यादि संत्रों की असङ्गति नहीं । किन्तु अभाव का निरुपण.