पृष्ठम्:वैशेषिकदर्शनम्.djvu/१४९

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति
१४७
अ. १ आ. १ सू. ८

कहे जाना जाता है, यह सम्भव प्रमाण भी अनुमान के अन्त गैत छै. क्योंकि लक्ष का सम्बन्ध सौ सहस्र के साथ नियत है। हाथ वा सिर आदि अंगों की चेष्टा मे जो ज्ञान होता है . वह भी अनुमान के अन्तर्गत है। इस प्रकार दो ही प्रमाण प्रत्यक्ष और अनुमान मागे ममेयों के साधक होने मे प्रमाण दो ही हैं ।

सैगति-परीक्षित प्रत्यक्ष और लैङ्गिक शान अनुभव रूप है । अब स्मृति रूप ज्ञान की परीक्षा करते है

आत्म मनसोः संयोगविशेषात् संस्कारा च स्मृतिः ॥ ६ ॥

आत्मा और मन के संयोग विशेष और मैस्कार मे स्मृति होती है ।

व्या-जय कोई वस्तु अनुभव होती है, तो उस के अनुभव का संस्कार आत्मा पर होता है। फिर जब कभी पुरुष उधर मन को लगाता है. वा कोई वैसी वस्तु देंखता है, तो उस का स्मरण होता है। यह जो मन को लगाना आदि है, यही आत्मा और मन का संयोग विशेष है, इस संयोगविशेोष से और पूर्वळे संस्कार सें स्मृति होती है ।

तथा स्वभः ॥ ७ ॥ ।

वैसे ५ स्पति की नाई आत्मा मन के संयोगविशेष मे और पूर्वेले संस्कार से) स्वर होता है (स्वम मानस भ्रम होता है)।

स्वणान्तिकम् ॥ ८ ॥ :

(वैसे ) स्व# के मध्य में ान ।