पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/९६

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नवमोऽध्यायः ७७ ।।५६ I५६ ब्रह्मणस्तु प्रजासर्ग सृजतो हि प्रजापतेः । सृष्ट्वा चतुष्टयं पूर्वं देवासुरपितून्प्रजाः ।।५४ ततः सृजति भूतानि स्थावराणि चराणि च । यक्षान्पिशाचान्गन्धर्वास्तथैवाप्सरां गणान् ५५ नरकंनररक्षांसि वयःपशुमृगोरगान् । अव्ययं च व्ययं चैव यदिदं स्थाणुजङ्गमम् तेषां ये यानि कर्माणि प्राक्सृष्ट्यां प्रतिपेदिरे। तान्येव प्रतिपद्यन्ते सृज्यमानाः पुनः पुनः ॥५७ हिंस्राहिंत्र मृदुक्रूरे धर्मा धर्मावृतानृते । तद्भाविताः प्रपद्यन्ते तस्मात्तत्तस्य रोचते ५८ महाभूतेषु नानात्वमिन्द्रियार्थेषु सूतषु । विनियोगं च भूतानां धातैव व्यदधात्स्वयम् केचित्पुरुषकारं तु प्राहुः कर्म च मानवाः । दैवमित्यपरे विप्राः स्वभावं दैवचिन्तकः ६० पौरुषं कर्म दैवं च फलवृत्तिस्वभावतः। न चैकं न पृथग्भावमधिकं न तयोविदुः ६१ एतदेवं (कं) च नैकं च न चोभे न च वTऽप्युभे । कर्मस्थान्विषयान्ब्रूयुः सत्त्वस्था समदशिनः ॥६२ नाम रूपं च भूतानां कृतानां च प्रपञ्चनम् । वेदशब्देस्य एवाऽऽदौ निर्ममे स महेश्वरः ६३ ऋषीणां नामधेयानि याश्च वेदेषु दृष्टयः । शर्वर्यन्ते प्रसूतानां तान्येवास्य दधाति सः ६४ यथर्तावृतुलिङ्गनि नानारूपाणि पर्यये । दृश्यते तानि तान्येव तथा भावा युगादिषु ॥६५ एवंविधासु सृष्टासु ब्रह्मणाऽव्यक्तजन्सना । शर्वर्यन्ते प्रदृश्यन्ते सिद्धिमाश्रित्य मानसीम् ॥६६ ब्रह्मां ने पहले देव, असुर पितर प्रजा नामक चार प्रकार की सृष्टि करके स्थावर-वरादि अन्यान्य भूतों को उत्पन्न किया । यक्ष, पिशाच, नर किन्नर, अप्सरा, गन्धर्व, Tक्षस, पक्षी, पशु, मृग, उरग, अव्यय, व्यय, स्थावर, जंगम आदि समस्त पदार्थों को वनया ॥५४५६। पहली सृष्टि में इन लोगों ने जैसा कर्म प्राप्त किया था, वैसा ही कमें इन लोगों ने वारवार उत्पन्न किये जाने पर भी पाया ।५७। उसी कर्म-वासना के अनुरूप वे सब पृथक्पृथक् प्रवृत्ति वाले होते हैं ।५७। इससे वे सब हिंस्र, अहंत्र, , कूर, धर्म, अधर्म, सत्य, अनृतादि विविध कर्म मे अपनी इच्छा के अनुसार प्रवृत्त होते है ५८। विधाता ने स्वयं ही महाभूतों का नानात्व और मूति तथा इन्द्रियार्थे समूह की व्यवहाररीति को निश्चित किया है ।५६विप्रगण ! कोई पुरुषाकार, कोई देव और कोई स्वभाव को ही कर्मफलदायक कहकर निरूपण करते है ।६०। किन्तु पुरुषाकार ! देव और कर्म ये तीनों ही स्वभाव के वश फलसाधक है । इनके बीच न्यूनाधिक भाव नहीं है; प्रत्येक में समान भाव से प्रधान है । कोई कर्म इनमें एक के द्वारा सम्पन्न होता है, यह कहा नहीं जा सकता। कमें सघन समूह का एकत्व-द्वित्वादि भेद कर निर्वाचन भी नहीं किया जा सकत; इसलिये सत्त्वस्थ ब्रह्मनिष्ठगण विषयसमूह को कर्मस्थ कह कर निर्देश करते है ।६१-६२ महेश्वर ब्रह्मा ने कल्पादि काल में वेदवचन द्वारा भूत समूह के नामरूप और कर्मादि का निर्माण किया है । रात्रि के अवसान में और दिन के प्रारम्भ काल में भगवान् ब्रह्मा पूर्व काल के वेदों का प्रकाश करते हैं और ऋषिगण भी पूर्वकालीन नाम प्रगट करते हैं । विभिन्न ऋतुकाल में जिस प्रकार ऋतु-विविध आकार में व्यक्त होते है, उसी प्रकार विभिन्न युग में