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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/८३३

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८१२ वायुपुराणम् एवमुक्तो दिनिश्चित्य नग्नस्तिष्ठति वै नृपः । नग्नं द्रक्ष्यति मां देवी समयो वितथो भवेत् ततो भूयस्तु गन्धर्वा द्वितीयं सेषमाददुः । द्वितीयेऽपहृते मेषे ऐलं देवी तमब्रवीत् पुत्रौ मम हृतौ राजन्ननाथाया इन प्रभो । एवमुक्तस्तदोत्थाय नग्नो राजा प्रधावितः मेषाभ्यां पदवीं राजन्गन्धर्वैर्व्युत्थितामथ । उत्पादिता तु महती माया तद्भवनं महत् प्रकाशिता तु सहला ततो नग्नमवेक्ष्य सा | नग्नं दृष्ट्वा तिरोभूत्सा अप्सरा कामरूपिणी तिरोभूतां तु तां ज्ञात्दा गन्धर्वास्तत्र तावुभौ । मेषौ त्यक्त्वा च ते सर्वे तत्रैवान्तहिताऽभवन् * उत्सृष्टावुरणौ दृष्ट्वा राजाऽऽगृह्याऽऽगतः प्रभुः | अपश्यंस्तां तु वै राजा विललाप सुदुःखितः चचार पृथिवीं चैव मार्गमाणस्ततस्ततः । ( + भ्रममाणः सुदुःखेन विललाप जगत्पतिः वनेषु सरितां कूलेष्वालयेषु महेषु च | विचचार गिरिष्वेको निर्झरोपवनेषु च खेट खर्चटवाटीषु नगरे नगरे तथा । पप्रच्छ सकलान्सत्त्वाग्विषोदन्निदमब्रवीत् ॥२२ ॥२३ ॥२४ ॥२५ ॥२६ ॥२७ ॥२८ ॥२६ ॥३० ॥३१ रही थी, उस समय राजा नग्न पड़ा हुआ था, अतः उसने निश्चय किया कि यदि इस समय मैं उठ पड़ेगा तो मुझे नंगे रूप में देवी देख लेगी और तब उसकी प्रतिज्ञा टूट जायगी | २०-२२। इसी बीच में गन्धर्यो ने दूसरे मेढ़े को भी चुरा लिया । दूसरे को चुग लेने पर उर्वशी ने राजा पुरूरवा से कहा, राजन् ! प्रभो ! मेरे दोनों पुत्र अनाथ के पुत्रों की तरह चुरा लिए गये । उवंशी के ऐसा कहने पर राजा नग्न अवस्था ही में शय्या से उठकर दौड़ पड़ा और गन्धर्वो तथा दोनों मेढ़ों के पद चिह्नों का अनुसरण करते हुए आगे बढ़ा | गन्धर्वो ने इस अवसर पर एक वढी चाल चलो, उन्होंने सारे राज्य भवन को शोघ्रता से प्रकाशयुक्त कर दिया, से और उर्वशी ने राजा को नंगा देख लिया । इच्छानुकूल स्वरूप धारण करने वाली अप्सरा उवंशी राजा को नंगा देखते हो अन्र्तवान हो गयी |२३-२६ | उर्वशी को अन्तहित जान गन्धर्वों ने उन दोनों मेढ़ों को छोड़ दिया और स्वयं वही पर अन्तर्हित हो गये । छूटे हुए दोनों मेढों को पकड़ कर राजा शयनागार में आये और वहाँ पर उर्वशी को न देखकर बहुत दुःखित होकर विलाप करने लगे। इघर उधर उर्वशी को ढूंढते हुए वह पृथ्वी भर घूम आये । जगत् के स्वामी होकर भी उर्वंगी के वियोग में राजा परम दुःखित होकर जगत् भर घूमते रहे । वनों में, नदियों के तटों पर, भवनों में, पर्वतों में, निर्झरों और उपवनों में, शिकार खेलने के स्थानों पर पर्वतों के समोपवर्ती ग्रामों मे. वगीचो एवं वाटिकाओं में नगर-नगर में घूम-घूम कर वह सभी जीवधारियों से पूछते हुए परम विषण्ण होकर यह कहता फिरता था |२७-३११ अरे ! मुझ दुःखिये को तू क्यों नहीं देख रही

  • क्षत्र संघिरापः | + धनुषिचह्नान्तर्गतग्रन्थः ख पुस्तके विद्यते ।