पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/७८

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अष्टमोऽध्यायः ५८ असंस्काथैः शरीरैश्च प्रजास्ताः स्थिरयौवनाः । तासां विशुद्धात्संकल्पाजायन्ते मिथुन प्रजाः समं जन्म च रूपं च ध्रियन्ते चैव ताः समम् । तदा सत्यमलोभश्च क्षमा तुष्टिः सुखं दमः ॥५६ निर्विशेषास्तु ताः सर्वा रूपायुः शीलचेष्टितैः । अबुद्धिपूर्वकं वृत्तं प्रजानां जायते स्वयम् ॥६० अप्रवृत्तिः कृतयुगे कर्मणः शुभपापयोः । वर्णाश्रमव्यवस्था न तदाऽऽखन संकरः ॥६१ अनिच्छाद्वेषयुकास्ते वर्तयन्ति परस्परम् । तुल्यरूपायुपः खर्चा अधमोत्तमवजिताः ॥६२ सुखप्राया ह्यशोकाश्च उत्पद्यन्ते कृते । युगे । नित्यप्रहृष्टमनसो महसस्त्वा सहाबलाः ॥६३ लाभालाभौ न तास्वास्तां मित्रामित्रे प्रियाप्रिये । मनसः विषयस्तासां निरीक्षणां प्रवर्तते ॥६४ न लिप्सन्ति हि ताऽन्योन्यं नानुयुञ्जन्ति चैव हि । ध्यानं परं कृतयुगे त्रेतायां ज्ञानमुच्यते ॥५ प्रवृत्तं द्वापरे यज्ञ(ज्ञ) दानं कलियुगे वरम् । सस्यं कृतं रजस्त्रेता द्वापरं तु रजस्तमौ ॥६६ कलौ तमस्तु विज्ञेयं युगवृत्तवशेन तु । कालः कृते युगे त्वेष तस्य संख्यां निबोधत ॥६७ चत्वारि तु सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम् । संध्यांशो तस्य दिव्यानि शतान्यष्टौ च संख्यया। तदा तासां बभूवाऽऽयुर्न च क्तेशवपत्तयः । ततः कृतयुगे तस्मिन्संध्यांशे हि गतं तु वै ॥६६ यद्यपि वे अपने शरीर का संस्कार (स्नान आदि) आदि नहीं करते थे तथापि वे स्थिर यौवन थे। उनके शुद्ध संकल्प से ही मिथुनप्रजा (सन्तति) उत्पन्न हो जाती थी ।५८वे जन्म और रूप में समान थे मृत्यु भी साथ ही होती थी । उस समय सत्य, अलोभ, क्षमा, तुष्टि, सुख और संयम का ही प्रचार था ॥५६॥ इनके रूप, आयु, शत और चेष्टाओं में पार्थक्य या विशेषता नहीं थी । प्रजाओं के व्यापार और व्यवहार स्वाभाविक होते थे बुद्धिपूर्वक नही ।६०। कृत युग में शुभ और अशुभ कर्मों में प्रजा की प्रवृत्ति नहीं थी वयोंकि शुभ अशुभ का विभाग था ही नही । उस समय वर्णाश्रम व्यवस्था न थी, न तो संकर दोप ही था ।६१। वे परस्पर अकाम और अनिच्छा पूर्वक व्यवहार करते थे । रूप, आयु में सभी तुल्य थे, उत्तम अघम का प्रश्न नही था, उस युग में तो सभी सुखी, विशोक, सदा प्रसन्न, महासत्व और महाबलवान् थे ।६२-६३। उनमे लाभ-अलाभमित्र-अमित्र, प्रिय-अप्रिय के व्यवहार न थे, वे निरीह थे और मन की प्राकृतिक प्रेरणा से ही विषयों में प्रवृत्त होते थे। एक दूसरे के प्रति किसी की. कोई इच्छा, स्वार्थे न था, न तो परस्पर के अनुग्रह की आवश्यकता थी । कृतयुग में ध्यान का ही महत्व है, त्रेता में ज्ञान, द्वापर में यज्ञ ओर कलि में दान ही श्रेष्ठ समझा जाता है ।६४६३। युगानुरूप कृतयुग में सतोगुण, द्वापर में रज और तम और कलियुग में केवल तम की प्रधानता रहती है । कृतयुग का जो काल परिमाण है उसको सुनो ६ ६-६७ चार हजार दिव्य वर्षों का कृतयुग है उसकी संध्या और संख्याओं का परिमाण आठ स दिव्यवर्ष हैं ।६८। उस युग में प्रजओं की मृत्यु क्लेश और विपत्तियों की आशंका नहीं । तदनन्तर उस कृतयुग में संध्यांश काल के