पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/६८

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सप्तमोऽध्यायः ४६ नानात्वेनाभिसंबद्धस्तदा तत्कालभाविनः । स्वपतो बुद्धिपूर्वं हि यथा भवति जाग्रतः ३५ तत्कालभावि तेषां तु तथा शानं प्रवर्तते । प्रत्याहारे तु भेदानां येषां भिन्नाभिस्सूक्ष्मणम् (?) । तैः सार्ध प्रतिसृज्यन्ते कार्याणि करणानि च । नानात्वदर्शनात्तेषां ब्रह्मलोकनिवासिनाम् ।।३७ विनष्टस्वधिकाराणां स्वेन धर्मेण तिष्ठताम्। ते तुल्यलक्षणःसिद्धाः शुद्धर्तमानो निरञ्जनाः ॥३८ प्रकृतौ कारणातीताः स्वात्मन्येव व्यवस्थिताः प्रख्यापयित्वा ह्यात्मानंप्रकृतिस्तेषु सर्वशः ॥३€ रुषाव्यवहृत्वे (स्वे) न प्रतीता न अवततं । प्रवर्तते पुनः सर्गे तेषां वा कारणं पुनः ।।४० संयोगे प्राकृते तेषां युक्तानां तत्त्वदर्शिनाम् । अत्रपवर्गिणां तेषामपुनर्मार्गगाभिना (ण) म् ॥४१ अभावः पुनरपत्तौ शान्तानामर्चिषामिव । ततस्तेषु गतेषुध्वं त्रैलोक्यास्सुमहात्मसु ॥४२ तैः सार्ध ये महलकातद नाऽऽसादिता जनः । तच्छिष्टाश्चेह तिष्टन्ति कल्पाद्देहमुपासते ॥४३ गन्धर्वाद्याः पिशाचान्ता मानुषा ब्राह्मणादयः । पशवः पक्षिणश्चैव स्थावराः ससरीसृपः ।।४४ ० है I३२-३४ । वे उस समय जैसे सोते हुये भी जागते रहते हैं उसी प्रकार उस समय उन मुक्त पुरुषों या देवों के मन में तत्काल सम्बन्धी नानात्व का ज्ञान उद्बुद्ध हो जाता है ।३५३ जो भेद ज्ञान प्रत्याहार (प्रलय) काल में रहता है वही अब अपने भिन्न भिन्न सूक्ष्म रूपों में व्यक्त हो जाता है ।३६ उन ब्रह्मलोक निवासी, अपने धर्म का पालन करने वाले परन्तु सम्प्रति नानात्व दर्शन से अघिकारच्युत महापुरुषों के प्राकृत ज्ञान के साथ ही कार्यों और कारण को सृष्टि होने लगती है ।३: वे (पहली कोटि के शुद्ध आरमा), निरञ्जन और तुर्य लक्षण कारणातीत सिद्ध पुरुष अपनी प्रकृति में ही व्यवस्थित रहते हैं ।३८प्रकृति उन द्वितीय कोटि के मुक्त पुरुषों पर सर्वथा अपनी धाक तो जमा लेती है परन्तु वह पुरुषों के बिना सहयोग के किसी कार्यों को स्वयं नहीं प्रारम्भ करती है । अतः प्रलय काल में पुरुष में ही वह लीन रहती है ।३९-४०॥ सृष्टि प्रारम्भ होने पर या कारण उपस्थित होने पर उन योगी, तत्त्वदर्श, युक्त, आवागमन के बन्धन से रहित पुरुषों की उस प्राकृत संयोग काल में भी (सृष्टि-काल में) शान्त अग्नि ज्वाला के समान पुनः उत्पत्ति नहीं होती ।४१३। इस प्रकार इस थैलोक्य से ऊध्र्व अत्यन्स महान् लोकों में (तपः सत्य) उन महापुरुषों के चले जाने पर उनके साथ रहने वाले वे महापुरुष तपस्वीजन जिन्होंने कि अपनी तपस्या से महलोंक से ऊपर के लोकों का अधिकार नहीं प्राप्त किया है, कल्पर्यन्त वहीं (महलोंक में) शरीर धारणकर निवास करते हैं। २४३। उस समय गन्धर्वो से लेकर पिशाच पर्यन्त, मानव (ब्राह्मण-क्षत्रिय आदि, पशु-पक्षी, स्थावर, सरीसृप (रेंग कर चलने वाले साँप आदि) जो जीव पृथ्वीतल पर रहते हैं, उनको प्रलय का सामना