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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५३४

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एकपष्टितमोऽध्यायः कृतत्रेतादिसंयुक्तं चतुर्युगमिति स्मृतम् । तदेकसप्ततिगुणं परिवृत्तं तु साधिकम् ॥ मनोरेतमधीकारं प्रोवाच भगवान्प्रभुः एवं सन्वन्तराणां तु सर्वेषामेव लक्षणम् । अतीतानागतानां वै वर्तमानेन कीर्तितम् इत्येष कीर्तितः सर्गो मनोः स्वायंभुवस्य ह । प्रतिसंधि तु वक्ष्यामि तस्य चंवापरस्य तु मन्वन्तरं यथा पूर्वमृषिभिर्देवतैः सह । अवश्यंभाविनाऽर्थेन यथा तद्वै निवर्तते अस्मिन्मन्वन्तरे पूर्व त्रैलोक्यस्येश्वरास्तु ये | सप्तर्षयश्च देवास्ते पितरो मनवस्तथा ॥ सन्वन्तरस्य काले तु संपूर्ण साधकास्तथा क्षीणाधिकाराः संवृत्ता बुद्ध्वा पर्यायमात्मनः । महर्लोकाय ते सर्वे उन्मुखा दधिरे गतिम् ततो सन्वन्तरे तस्मिन्प्रक्षीणा देवतास्तु ताः | संपूर्ण स्थितिकाले तु तिष्ठन्त्येकं कृतं युगम् उत्पद्यन्ते भविष्याश्च यावन्मन्वन्तरेश्वराः । देवताः पितरश्चैव ऋषयो मनुरेव च सन्वन्तरे तु संपूर्णे यद्यन्यद्वै कलौ युगे | संपद्यते कृतं तेषु कलिशिष्टेषु वै तदा पथा कृतस्य संतानः कलिपूर्वः स्मृतो बुधैः । तथा मन्वन्तरान्तेषु आदिर्मन्वन्तरस्य च ५१३ ॥१४६ ॥१४७ ।।१४८ ॥१४६ ॥१५० ॥१५१ ॥१५२ ॥१५३ ॥१५४ ॥१५५ त्रेता, द्वापर, कलियुग के नाम से पहिले ही मैं इसी प्रसंग में बतला चुका हूँ ! सतयुग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग - ये चार युग स्मरण किये गये है – इसका इकहत्तर गुना काल एक मनु का अधिकार काल भगवान् ने बतलाया है | १४२-१४६ । इसी प्रकार सभी मन्वन्तरो के लक्षण बतलाये गये है, वर्तमान द्वारा अतीत एवं भविष्य में होनेवाले मन्वन्तरों का वर्णन भी हो चुका | स्वायम्भुव मनु का सृष्टिक्रम इस प्रकार कहा जा चुका | अब उस स्वायम्भुव मन्वन्तर तथा अन्याय मन्वन्तरी की प्रतिसन्धि का वर्णन कर रहा हूँ | अवश्य घटित होनेवाली विधि की इच्छा ( भवितव्यता ) से प्रेरित ऋषियों और देवताओं के साथ पूर्वकाल में जिस प्रकार मन्वन्तर व्यतीत हो चुके है उसी प्रकार भविष्य में भी होंगे । प्राचीन काल में इस मन्वन्तर में समस्त त्रैलोक्य के ऐश्वर्यशाली जो सप्तर्षि, देवगण, पितर तथा मनुगण रहते हैं वे मन्वन्तर के समस्त काल में सृष्टि व्यापार के साधक होते है, तदनन्तर अपने समय का दूसरा पक्ष आया जान अधिकार से च्युत हो महर्लोक की ओर गमन करते है । १४७-१५१ | मन्वन्तर मे अधिकारच्युत होने वाले वे देवगण सम्पूर्ण स्थितिकाल में एक सतयुग तक विद्यमान रहते है। इसी प्रकार अन्यान्य मन्वन्तरो में होने वाले ऐश्वर्यशाली जितने देवता, पितर, ऋषि और मानवगण है, वे भी उत्पन्न होंगे । सभी मन्वन्तरों में कलियुग में में उत्पन्न होनेवाली उन शेष प्रजाओं में ही सतयुग की प्रवृत्ति होती है । जिस प्रकार बुद्धिमान् लोग सत्ययुग की प्रजाओं के पूर्व कलियुग को प्रजाओ का अस्तित्व मानते है, उसी प्रकार एक मन्वन्तर के पूर्व दूसरे मन्वन्तर की सृष्टि का अस्तित्व रहता है | १५२-१५५० पूर्व मन्वन्तर फा० - ६५