एकषष्टितमोऽध्यायः ॥८६ 1180 ॥६२ ॥६३ आभिजात्या च तपसा यन्त्रव्याहरणैस्तथा । एवं ब्रह्मर्षयः प्रोक्ता दिव्या राजर्षयस्तु ये देवर्षयस्तथाऽन्ये च तेषां वक्ष्यामि लक्षणम् । भूतभव्यभवज्ञानं सत्याभिव्याहृतं तथा संबुद्धास्तु स्वयं ये तु संबद्धा ये च वै स्वयम् | तपसेह प्रसिद्धा ये गर्भे यैश्च मनो [ थो] दितम् ॥६१ सन्त्रव्याहरिणो ये च ऐश्वर्यात्सर्वगाच ये । इत्येत ऋषिभिर्युक्ता देवद्विजनृपास्तु ये एतान्भावानधीयाना ये चैत ऋऋषयो मताः । सप्तैते सप्तभिश्चैव गुणैः सप्तर्षयः स्मृताः दीर्घायुषो सन्त्रकृत ईश्वरा दिव्यचक्षुषः । बुद्धाः प्रत्यक्षधर्माणो गोत्रप्रावर्तकाश्च ये षट्कर्माभिरता नित्यं शालिनो गृहसेधिनः । तुल्यैर्व्यवहरन्ति स्म अदृष्टैः कर्महेतुभिः अग्राम्यैर्वर्तयन्ति स्म रसैश्चैद स्वयंकृतैः | कुटुम्बिन ऋद्धिमन्तो बाह्यान्तरनिवासिनः कृतादिषु युगाख्येषु सर्वेष्वेव पुनः पुनः । वर्णाश्रमव्यवस्थानं क्रियन्ते प्रथमं तु वै प्राप्ते त्रेतायुगसुखे पुनः सप्तर्षयस्विह | प्रवर्तयन्ति ये वर्षानाश्रमांश्चैव सर्वशः ॥ तेषामेवान्वये दीरा उत्पद्यन्ते पुनः पुनः ॥९४ ॥६५ ५०७ ॥६७ ॥६८ उपदेश करने से दिव्यगुण सम्पन्न राजपगण भी ब्रह्मर्षि - कहे जाते हैं। इसके अतिरिक्त जो अन्य देवर्षि कहे गये है, उनके क्षक्षण बतला रहा हूँ । अतीत, भविष्यत् एवं वर्तमान - तीनो कालों के ज्ञाता, सत्यभाषी, स्वयं को जाननेवाले तथा अपने में सम्बद्ध, तपस्या से इन्द्रलोक में प्रसिद्धि प्राप्त करने वाले, गर्भावस्था में हीं अज्ञानांधकार के नष्ट हो जाने से जिनके ज्ञान का प्रकाश हो जाता है, ऐसे मंत्रवेत्ता एवं अपने ऐश्वर्य से सर्वत्र समान गति रखनेवाले देवता, द्विज एव राजा लोग भी देवर्षि नाम से प्रसिद्ध होते है । ८९-९२ । इन उपर्युक्त विषयों के अध्ययन करने वाले अर्थात् उनसे सम्पन्न ऋषि माने गये है । दीर्घायु सम्पन्न मंत्रकर्ता, ऐश्वर्यशाली, दिव्य दृष्टि सम्पन्न, ज्ञानी, प्रत्यक्ष धर्मपरायण एवं गोत्रप्रवर्त्तक - जो ये सात ऋषिगण हैं, वे अपने इन सातों गुणों से ऋषि कहे जाते है |९३-९४१ वे ऋषिगण नित्य षट्कर्मों में प्रवृत्त रहनेवाले, समृद्ध, गृहस्थाश्रमी, कर्मफल रूप अदृष्ट को मानने वाले एवं तदनुरूप व्यवहार करनेवाले, शिष्ट व्यवहार द्वारा जीवन यापन करनेवाले, आत्मज्ञान रस मे परिपुष्ट होनेवाले, कुटुम्बी सम्पत्तिशाली एवं बाह्य तथा आभ्यन्तर में निवास करनेवाले होते है । सतयुग आदि समस्त युगों में सर्वप्रथम ये ऋषिगण पुनः पुनः वर्णो एवं आश्रमों की व्यवस्था सम्पादित करते है |६५-६७१ पुनः त्रेतायुग के प्रारम्भ होने पर वे ही सप्तपिंगण इस पृथ्वी पर अशेष रूप से वर्णाश्रम धर्म का पुनः प्रवर्त्तन करते है । उन्हीं ऋषियों के वंशो में वीरगण पुनः पुनः उत्पन्न होते हैं । पुत्र के उत्पन्न होने पर पिता और पिता के उत्पन्न होने पर पुत्र - (अर्थात पुत्र पिता - १. यज्ञ करना यज्ञ कराना, पढ़ना, पढाना, दान देना और दान लेना- ये छः ब्राह्मणों के कर्म कहे गये है ।
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