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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/५१८

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एकषष्टितमोऽध्यायः अनेन विधिना जातं विप्राणां शासनं महत् । गोध्नो वाऽपि कृतघ्नो वा सुरापी गुरुतल्पगः || वाडादित्यं नमस्कृत्य सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥७५ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते महास्थानतीर्थवेदशाखाप्रणयवर्णनं नाम षष्टितमोऽध्यायः ।। ६० ।। अथैकषष्टितमोऽध्यायः प्रजापतिवंशानुकीर्तनम् ऋषय ऊचुः भारद्वाजो याज्ञवल्क्यो गालकि: शालकिस्तथा ] धीमाञ्शतलाकच नैगमश्च द्विजोत्तमः बाष्कलिश्च भरद्वाजस्तिस्रः प्रोवाच संहिताः । रथीतरो निक्तं च पुनश्चक्रे चतुर्थकम् त्रयस्तस्याभवञ्शिण्या महात्मानो गुणान्विताः । श्रीमान्नन्दायनीयश्च पनगारिश्च बुद्धिमान् ॥ तृतीयाचाऽऽर्यवस्ते च तपसा संशितव्रताः ४६७ ॥१ ॥२ ॥३ लगाया था । इस प्रकार उस पुर में ब्राह्मणों की महती शासन व्यवस्था प्रचलित हुई थी, गोहत्या करने वाला, कृतघ्न, मद्यप अथवा गुरुस्त्री गामी ऐसे कठोर पाप करने वाले भी वाडादित्य को नमस्कार करके सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं ।७४-७५ । श्री वायुमहापुराण में महास्थान-तीर्थ-वेदशाखा प्रणयन वर्णन नाम साठवाँ अध्याय समाप्त ||६०|| अध्याय ६१ ऋषियों ने कहा - भारद्वाज याज्ञवल्क्य गालकि, सालकि, बुद्धिमान् शतबलाक, ब्राह्मणश्रेष्ठ नैगम, और बाष्कल के पुत्र भारद्वाज इन लोगों ने तीन संहिताओं का निर्माण किया था। रथीतर ने पुन: जिस निरुक्त की रचना की थी, वह चतुर्थ था |१ - २ | उसके महान् सर्वगुणसम्पन्न, तीन शिष्य हुये, जिनमें से परम बुद्धिमान् नन्दायनीय प्रथम, पन्नगारि द्वितीय और परम तपस्वी आर्यव नामक तृतीय शिष्य था |३| ये तीनों फा०-६३