४६४ वायुपुराणम् लोके वेदे तथाऽध्यात्ने विद्यास्थानैरलंकृताः । शापोत्तमगुणैर्युक्ता नृपौधपरिवर्जनाः ॥ वादा समभवंस्तत्र धनहेतोर्महात्मनाम् ऋषयत्तः सर्वे याज्ञवल्क्यस्तथैकतः । सर्वे ते मुनयस्तेन याज्ञवल्क्येन धोगता | एकैकशस्ततः पृष्टा नैवोत्तरमथानुवन् तान्यिजित्य मुनीन्तर्वान्ब्रह्मराशिर्महाद्युतिः । शाकल्यमिति होवाच वादकर्तारभञ्जसा शाकल्प वद वक्तव्यं कि घ्यायन्नवतिष्ठते । पूर्णस्त्वं जडमानेत वाताव्यातो यथा दृतिः एवं स धर्षितस्तेन रोषात्तात्रास्थलोचनः । प्रोवाच याज्ञवल्ययं तं परुपं भुनिसंनिधौ त्वमस्गांस्तृणवत्कृत्वा तथैवैमान्द्विजोत्तमान् । विद्याधनं महासारं स्वयंग्राहं जिघृक्षसि शाकल्येनैवसुक्तः स याज्ञवल्क्यः समनवीत् । ब्रह्मिष्ठानां बलं विद्धि विद्यातत्त्वार्यदर्शनम् कामश्वार्थेन संबद्धरतेनार्थ कामयामहे । कामप्रश्नधना विशाः कामप्रश्नान्वदामहे पणश्चैषोऽस्व राजर्षेस्तस्मान्नोतं धनं मया । एतच्छू त्वा वचस्तस्य शाकल्यः क्रोधमूच्छितः ॥ याज्ञवल्यमथोवाच कामप्रश्नार्थवद्वचः ॥४७ ॥४८ ।।४६ १५० ॥५१ ॥५२ ॥५३ ॥५४ ५५ ( अनुभूति) जनित सहस्रों कल्याणकारी अर्थी के नवीन-नवीन आविष्कार से युक्त विवाद होने लगे, उस समय कोई किसी की बुद्धि की निन्दा कर रहे थे तो कोई किसी की युक्ति की उत्तम गुणो से प्रशंसा कर रहे थे । वे विस्तृत वादविवाद राजाओं के समूहों को नष्ट करने वाले थे । उस महान् वादविवाद में एक ओर सव के सब ऋषि सम्मिलित हुये थे और दूसरी ओर अकेले याज्ञवल्क्य थे | उन सभी ऋषियों से एक-एक करके याज्ञवल्क्य ने प्रश्न किये किन्तु किसी ने भी ठीक उत्तर नही दिया ।४६-४८ तदुपरान्त ब्रह्मराशि, परम शोभा सम्पन्न याज्ञवल्क्य ने उन सभी ऋपियो को पराजित कर विवाद करने मे प्रमुख भाग लेने वाले शाकल्य नामक ऋषि से शीघ्रता पूर्वक कहा. - शाकल्प ! क्या विचार कर रहे हो, अपनी जड़ता के कारण तुम वायु से भरी हुई भाथी की तरह अभिमान से फूले हुये हो, बोलो, चुप क्यो बैठे हो । याज्ञवल्क्य द्वारा इस प्रकार अपमानित होने पर शाकल्य का मुख और नेत्र क्रोध से लाल गये। सभी ऋषियों के समीप में ही उन्होने कठोर वाणी मे कहा. याज्ञवल्क्य । 'तुम हमे और इन श्रेष्ठ ऋषियो को तृण की भाँति जीत कर इस अतिमूल्यवान् विद्याधन को अकेले अपने हो लेना चाहते हो | ४६-५२॥ शाकल्य के ऐसा कहने पर याज्ञवल्क्य ने सभी मुनियों के सामने कहा, अच्छे ब्रह्मज्ञानी ब्राह्मण का वल उनका विद्या का तत्त्वार्थ ज्ञान समझो, यतः काम (इच्छा) का सम्वन्ध अर्थ (धन) से पड़ता है, इसीलिये मै भी धन की कामना करता हूँ । ब्राह्मण लोग इच्छानुकूल प्रश्न करने वाले होते है, मैने भी अपनी-अपनी इच्छा के अनुकूल प्रश्न आप लोगों से किया । राजर्षि जनक का प्रण भी यही था कि जो विप्र विद्या आदि में सर्वश्रेष्ठ सिद्ध हो, वही पूज्य है, इसीलिये मैंने इस धनराशि को ग्रहण
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