४६२ वायुपुराणम्
शांशपायन उवाच
कथं विनाशमगमत्स मुनि नगवितः । जनकस्याश्वमेधेन कथं वादो बभूव ह ॥३३ किमर्थ चाभवद्वादः केन सार्धपथापि ना । सर्वमेतद्यथावृत्तमाचक्ष्व विदितं तव ।। ऋषीणां तु वचः श्रुत्वा तदुत्तरमथाब्रवीत् ॥३४ सूत उवाच जनकस्याश्वमेधे तु महानासीत्समागमः । ऋपीणां तु सहस्त्राणि तत्राऽऽजग्मुरनेकशः ।। राजर्षेर्जनकस्याथ तं यज्ञं हि दिदृक्षवः ॥३५ आगतान्ब्राह्मणान्दृष्ट्वा जिज्ञासाऽस्याभवत्ततः । को न्वेषां ब्राह्मणः श्रेष्ठः कथं मे निश्चयो भवेत् ॥ इति निश्चित्य मनसा बुद्धि चक्रे जनाधिपः गवां सहस्रमादाय सुवर्णमधिकं ततः । नामान्रत्नानि दासांच सुनीन्त्राह नराधिपः॥ सर्वानहं प्रसन्नोऽस्मि शिरसा श्रेष्ठभागिनः ॥३७ . यदेतदाहृतं वित्तं यो नः श्रेष्ठतमो भवेत् । तस्मै तदुपनीतं हि विद्यावित्तं द्विजोत्तमाः ॥३८ शांशपायन ने कहा-सूतजी ! ज्ञान के गर्व से गर्वित वे मुनि किस प्रकार विनाश को प्राप्त हुये, राजा जनक के अश्वमेध यज्ञ में क्यों कर वादविवाद उठा था।? किस लिये वह वेकार का वादविवाद बढा था और किसके साथ हुआ था? ये सभी बातें आपको विस्तार पूर्वक ज्ञात है, हमें बतलाइये । सूत ने ऋाफ्या की बातें सुनने के बाद कहा ।३३-३४॥ सूत ने कहा- ऋपिवृन्द ! राजपि जनक के उस अश्वमेध यज्ञ में महान जनसमागम एकत्र हुआ था, विविध देशों एवं स्थानों से यज्ञ के दर्शनार्थी ऋषिगण सहस्रों की संख्या में आ-आकर उसमें सम्मिलित हुये थे। समागत विशाल ब्राह्मण समुदाय को देखकर राजा जनक के मन में यह स्वाभाविक जिज्ञासा उत्पन्न हु२ कि इन तमाम ब्राह्मणों में कौन सर्वश्रेष्ठ है-इसका निश्चय मुझको किस प्रकार होगा ? राजा ने ऐसा मन में विचार कर एक युक्ति का सहारा लिया। एक सहस्र गौयें, एक सहस्र से अधिक सुवर्ण, अनक ग्राम, बहुमूल्य रत्न और दास-दामियों के समूह को साथ लेकर मुनियो से राजा ने कहा:-परमभाग्यशाला ऋषिवृन्द ! आप सब लोगों को मैं शिर झकाकर नमस्कार कर रहा हूँ।३५-३७। आप लोगों में से जाना सर्वश्रेष्ठ हों, वे मेरे इस लाये हुये द्रव्यादि समूह को ग्रहण करें, क्योंकि श्रेष्ठ ब्राह्मण लोग एक मात्र विद्या के