पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४८४

विकिस्रोतः तः
एतत् पृष्ठम् अपरिष्कृतम् अस्ति

अष्टपञ्चाशोऽध्याय ४६३ प्रतिष्ठते गुणैहीनो धर्मोऽसौ द्वापरस्य तु । तथैव संध्यापादेन अंशस्तस्यावतिष्ठते २६ द्वापरस्य च वर्षे या तिष्यस्य तु निबोधत । द्वापरस्यांशशेषे तु प्रतिपत्तिः कलेरतः ३० हिंसाऽसूयाऽनृतं साया वधश्चैव तपस्विनाम् । एते स्वभावास्तिष्यस्य साक्ष्यन्ति च वै प्रजाः ३१ एष धर्मः कृतः कृत्स्नो धर्मश्च परिहीयते । मनसा कर्मणा स्तुत्या वार्ता सिध्यति वा नवा ३२ कलौ प्रसारको रोगः सततं क्षुद्भयानि वै । अनावृष्टिभयं घोरं देशानां च विपर्ययः ३३ न प्रमाणं स्मृतेरस्ति तिष्ये लोके युगे युगे । गर्भस्थो म्रियते कश्विद्यवनस्थस्तथाऽपरः। स्थाविरे साध्यकौमारे स्रियन्ते वै कलौ प्रजाः ।।३४ अधामकास्त्वन्नाचार सोहनपाल्पतेजसः। अमृततृवाश्च सततं तिध्ये जायन्ति वै प्रजाः ३५ दुरिष्टंटुरधीतैश्च दुराचरैर्द्धरागमैः। क्षिप्राणां कर्मदोषेस्तैः प्रजानां जायते भयम् ३६ हिला साया तथेष्णं च योऽसूयाऽक्षमाऽनृतम् । तिष्ये भवन्ति जन्तूनां रागो लोभश्च सर्वशः ।३७ सध्या प्रवृत्त होती है ।२५-२८। उस सन्ध्या के समय में द्वापर युग का स्वभाव अपने गुणों से कुछ विहीन हो कर स्थित रहता है, सन्ध्या के समाप्त हो जाने पर सन्ध्या की पाद परिमित अवधि के लिए सन्ध्यांश की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार द्वापर युग के स्वभाव का वर्णन कर चुका अब कलियुग के स्वभाव का वर्णन सुनो । द्वापर युग के सन्ध्यांश की निवृत्ति हो जाने के उपरान्त । कलियुग की प्रवृति होती है । हिंसा, असूया, असत्य भाषण, मया, तपस्त्रियों का सहर, ये कलियुग के स्वभाव हैं, उस युग की प्रजाएँ कालधर्म के अनुसार इनका पालन करती है । इन उपयुक्त क लि घमी के कारण वेदानुमत धर्म सम्पूर्ण रूप से विनष्ट हो जाता है । मनसा कर्मणा एवं स्तुति द्वारा अथक प्रयत्न करने पर भी लोगों की जीविका निष्पन्न होने में सन्देह बना रहता है ।२8-३२। उस कलियुग में महामारी रोग, निरन्तर छुधा की व्याधियाँ, दुभिक्ष आदिघोर अनावृष्टि का भय तथा देशों में उथलपुथल सर्वदा मची रहती है, उन स्मृतियों का लोक में कोई प्रमण नहीं रह जाता, जिनका प्रत्येक युगों में मान था, कोई गर्भ मे ही मर जाता है तो कोई जवानी में । इसी प्रकार वृद्धावस्था सुमारावस्था में भी भी कलियुग में प्रजाऍ मृत्युलाभ करती है ।३३-३४। कलियुग में सभो लोग धर्मविहीनअनाचारी, अज्ञानी. सीधी, अल्प बुद्धिवाले एवं निरन्तर असत्यभाषी उत्पन्न होते है । उस कलियुग में ब्राह्मण जाति की कुशिक्षा, दुष्ट उपायों से यज्ञाराधन करने, असत् उपायों मे जीविका उत्पन्न करने, दुराचारी एवं दुष्यंसनी होने के कारण प्रजावर्ग को भय उस्पन्न होता है । उस कलियुग में सभी जीवों में हिंसा, माया, ईष्र्या, क्रोध, असूया, अक्षमाशीलता, असरय भाषण, राग एवं लोभ प्रभृति दोषों का प्रादुर्भाव हो जाता है । उस कलियुग के प्राप्त होने पर प्रत्येक जीवों में अतिशय क्षोभ उपन्न हो जाता है उस समय