पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/४६१

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४४२ वायुपुराणम् l५५ कुहेति कोकिलेनोक्तो यः कालः परिचिततः। तत्झलसंज्ञित यस्मादमावास्या युः स्मृता १५३ सिनीवालीशगणेन क्षीणशेषो निशाकरः। अमावास्यां विशयकं सिनीवाली ततः स्मृता ॥ ५४ (*अनुमत्याः सराफायाः सिनीवाली कुहूस्तथा । एतसां द्विलवः कालः मुहूमात्रा कुहूस्तया ।। इत्येष पर्वसंधीनां कालो वै द्विलवः स्मृतः) पर्वणः पर्वकालदस्तु तुल्मो वै तु वषक्रिया । चन्द्रसूर्यव्यतीपाते उभे ते पूणिमे स्मृते ५६ प्रतिपत्पञ्चदश्योल पर्वकालो द्विमात्रकः । कालः कुहूसिनीयाल्योः समुद्र द्विलवः स्मृतः १५७ अर्काग्निमण्डले सोमे पर्वकालः कलश्रयः । एवं स शुक्लपक्षो वै रजन्यः पर्वसंधिषु ५.८ संपूर्णमण्डलः श्रीमांश्चन्द्रमा उपरज्यते । यस्मादाप्यायते सोमः पश्वदश्यां तु पूणिमा १५६ दशभिः पञ्चभिश्चैव कलाभिदवसक्रमात् । तस्मात्कलाः पञ्चदश सोमे नास्ति तु षोडशी ॥ तस्मात्सोमस्य भवति पञ्चदश्यां महाक्षयः ६० इत्येते पितरो देवाः सोमपाः सोमवर्धनः । आर्तवा ऋतवो यस्मात्ते देवा भावयन्ति च ।।६१ ही काल वाली अमावस्या कुहू नाम से स्मरण की जाती है ।५०-५३। जिस अमावस्या तिथि को क्षीण चद्रमा सिनीवाली१ के प्रमाण से सूर्य के मण्डल में प्रवेश करता है उसे सिनीवाली नाम से स्मरण करते है । । अनुमती, राका ,२ सिनीवाली और कुहू -इन सबों के दो लव काल केवल कुहू मात्र प्रशस्त माने गये हैं इस प्रकार पर्व की संधियों क यह दो लव काल प्रशस्त माने गये हैं. सव पर्व तिथियों का पूर्वकाल समान द्वीप से प्रशस्त है और वषट् क्रिया के लिये प्रशस्त है । चन्द्र और सूर्य का व्यतीपात योग पर संयोग और पूर्णिमा दोनों तुल्यफलदायी माने जाते हैं ।५४५६। प्रतिपदा और पूणिमा मह पर्वकाल द्वि मात्रिक होता है, कुहू की सिनीवाली का पर्वकाल द्विलवात्मक होता है । चन्द्रमा के सूर्य और अग्निमण्डल से युक्त रहने पर जो पवकाल होता है वह कलाश्रम मात्र होता है । इस प्रकार रात्रि को पर्वसन्धियों में सम्पूर्ण मण्डल वाला श्रीमान् च उपरक्त होता है (ग्रहण लगता है) जिस कारण से सोम पूणिमा के दिन पञ्चदश कलाओं के साथ बढ़ते हैं (पूर्ण होते है) इसीलिये उसको पूणिमा कहा जाता है। दिनो के अनुसार पांच और दश कलाओं से हो वे बहुत है इसलिये सोम मे पन्द्रह कलायें ही होती है सोलह कलायै नही होती । इसलिये पञ्चदशी (कला या पूणिमा) में ही चन्द्रमा का महक्षय (ग्रहण) होता है ।५७६०। ये ऊपर कहे गये सोमपायी और सोमवर्धक पितरगण । गण हैं । वे अऋतु और आतंवदेव परस्पर एक दूसरे की सहायता एवं पुष्टि भी करते है ।६१। इसके अनन्तर

  • धनुश्चिह्नान्तर्गतग्रन्थः क. पुस्तके नास्ति ।

२. चतुर्दशी युक्त अमावास्या । २. इन दोनों का परिचय पूर्व में आ चुका है ।