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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/२३७

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२१८ एवं स भगवांस्तत्र दीप्यमानः सुरैषभिः । देवैश्च सुमहाभागैर्महदेवो व्यवस्थितः ॥३ पुरा हिमवतः पृष्ठे दक्षो वै यज्ञ मारभत् । गङ्गाद्वारे शुभे देशे ऋषिसिद्धनिषेविते ४ ततस्तस्य मखे देवः शतक्रतुपुरोगमाः । गमनाय समागम्य बुद्धिमापेदिरे तदा &५ स्वैविमानैर्महात्मानो ज्वलद्भिज्वलनप्रभाः । देवस्यानुमतेऽगच्छन्गङ्हार इति श्रुतिः te६ गन्धर्वाप्सरसाकीर्णे नानाद्रुमलतावृतम् । ऋषिसंधैः परिवृतं दकं धर्मभृतां वरम् १६७ पृथिव्यामन्तरिक्षे वा ये च स्वर्लोकवासिमः । सर्वे प्राञ्जलयो भूत्वा उपतस्थुः प्रजापतिम् ।६८ आदित्या वसवो रुद्रः साध्याः सह मरुद् गणैः । जिष्णुना सहिताः सर्वे आगत यज्ञभागिनः nee उष्मपाः सोमपाश्चैव आज्यपा धूमपास्तथा “ अधिन पितरश्चैव आगता ब्रह्मणा सह १०० एते चान्ये च बहवो भूतग्रामास्तरं थैव च । जरायुजाण्डजाश्चैव स्वेदजोद्भिज्जकास्तथा ।१०१ आहूता मंत्रतः सर्वे देवाश्च सह पत्निभिःx। विराजन्ते विमानस्था दीप्यमान इवाग्नयः ॥१०२ तान्दृष्ट्वा मन्युमाविष्टो दधीचो वाक्यस्रयोत् । अपूज्यपूजने चैव पूज्यानां चाप्यपूजने । नरः पापमवाप्नोति महदै नात्र संशयः १०३ जल को उत्पन्न यारनेवाली नदीश्रेष्ठ और देवस्वरूप को धारण करनेवाली गंगा भी उनकी । सेवा करने लगीं । इस प्रकार देवषयो और महाभ ग्यशाली देवताओं से घिरे हुये भगवान् महादेव वह बैठे थे (€१-६३। उसी समय दक्ष ने हिमालय के पृष्ठ देश में यज्ञ आरम्भ क्रिया । यज्ञस्यान सिद्ध-ऋषियों से सेवित, मंगलकारक गंगाद्वार में बनाया गया । ऐसा सुना जाता है कि अग्नि के तुल्य तेजस्वी इन्द्र प्रमुख देवगण उस यज्ञ में जाने का विचार करने लगे और अग्नि के समान अपने चमफ़ीले विमानों पर चढ़ कर वे सब महात्मा गंगाद्वर पहुंचे ।e४-। भिन्नभिन्न प्रकार की दृम-लताओ से आवृतगन्धर्व-अप्सराओं से व्याप्त, ऋपि समूहों से घिरे हुये पृथ्वी, अन्तरिक्ष और स्वर्गलोक के के निवासी हाय जोड कर स्तुति और धर्मध्वज दक्ष प्रजापति की प्रशंसा करने ।£ ८ आदित्य, वसु, रुद्र, साध्य, मरुद्गण और विष्णु आदि यज्ञ मे भाग पाने वाले लगे e७-। वहाँ पहुँ । उष्म, सोम, आर्य और धूम पीने वाले अक्विनीकुमारपितर और ब्रह्मा आदि देवगण भी आये ।e &-१००। इनके अतिरिक्त बहुतेरे जरायुज, अण्डज, स्वेदज ओर उद्भिज्ज आदि प्राणी, सभी देव मन्त्रघल से पत्नियों के साथ बुलाये गये । वे सभी विमान विहारी देव अग्नि की तरह प्रदीप्त हो रहे थे । उन सब को देख कर मुखपूर्वक बैठे हुये दधीचि ने दक्ष से कहा-अपूज्यों को पूजने और पूज्यों को न पूजने अर्षः प्रयोगः ।