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पृष्ठम्:वायुपुराणम्.djvu/११६०

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द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः गयाया महिमानं च अभ्यसेद्यः समाहितः । तेनेष्टं राजसूयेन अश्वमेधेन नारद य लिखेद्वा लेखयेद्वाऽपि पूजयेद्वाऽपि पुस्तकम् । तस्य गेहे स्थिरा लक्ष्मीः सुप्रसन्ना भविष्यति उपाख्यानमिदं पुण्यं गृहे तिष्ठति पुस्तकम् । सर्पाग्निचौरजनितं भयं तत्र न विद्यते श्राद्धकाले पठेद्यस्तु गयामाहात्म्यमुत्तमम् । विधिहीनं तु तत्सर्वं पितॄणां तु गयासमम् यानि तीर्थानि त्रैलोक्ये तानि दृष्टानि तत्र वै । येन ज्ञातं गयाख्याने श्रुतं वा पठितं मुने ११३६ ॥६३ ॥६४ ॥६५ ॥६६ ॥६७ सूत उवाच सनत्कुमारी मुनिपुङ्गवाय पुण्यां कथां चाथ निवेद्य भक्त्या || स्वमाश्रमं पुण्यवनैरुपेतं विसृज्य संगीतगुरुं जगाम ॥६८ इति श्रीमहापुराणे वायुप्रोक्ते उपसंहारपादे गयामाहात्म्यं नाम द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ।।११२।। उपसंहारपाद: समाप्तः वह अश्वमेध अथवा राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करता है । जो गयाख्यान की पुस्तक को स्वयं लिखता है, अथवा दूसरे से लिखवाता है अथवा पूजन करता है, उसके घर पर लक्ष्मी सुस्थिर एवं सुप्रसन्न रहेंगी। इस पुण्यप्रद गयाख्यान की पुस्तक जिसके घर रहती है, उसके घर सर्प, चोर एवं अग्नि जनित बाधाओं का भय नही रहता । श्राद्धकाल में जो मनुष्य इस पुनीत गयामाहात्म्य का पाठ करता है। उसका श्राद्ध विधिवत् न होने पर भी पितरों के लिये गया के समान फलदायी होता है । सारे त्रैलोक्य में जितने भी तीर्थ हैं, वे सभी गयापुरी में देखे गये हैं । नारद जी ! इस गयाख्यान के सम्बन्ध में में जितना जानता था, जितना सुना था, वह सब आप को बतला चुका |५६-६७। सूत वोले- इस प्रकार सनत्कुमार मुनिपुङ्गव नारद जो को भक्तिपूर्वक इस पुण्यकथा को सुना चुकने के उपरान्त उस सङ्गीत गुरु ( नारद जी ) से विदा लेकर पुण्य वन्य प्रान्त में अवस्थित अपने आश्रम को चले गये |६८ | वायुकथित महापुराण के उपसंहार नामक चतुथंचरण में गयामाहात्म्य नामक एक सौ बारहवाँ अध्याय समाप्त ॥११२॥ श्रीगुरुचरणाभ्यां नमः शिवमस्तु X एतदर्घस्थानेऽयं पाठः स. पुस्तके - पठेद्वा पाठयेद्वाऽपि पूजयेद्वाऽपि पुस्तकम् । इति ।