११२० वायुपुराणम् मानसं हि सरो ह्यत्र तस्मादुत्तरमानसम् । सूर्यं नत्वाऽचयित्वाऽथ सूर्यलोकं नयेत्पितन् नमो भगवते भर्त्रे सोमभौमज्ञरूपिणे । जीवभार्गवसौरेयराहुकेतुस्वरूपिणे उत्तरात्मानसान्मौनी व्रजेद्दक्षिणमानसम् | उदोचीतीर्थमित्युक्तं तत्रौदीच्यं विमुक्तिदम् ॥ अत्र स्नातो दिवं याति स्वशरीरेण मानवः मध्ये कनखलं तीर्थं त्रिषु लोकेषु विश्रुतम् । स्नातः कनकवद्भाति नरो याति पवित्रताम् तस्य दक्षिणभागे च तीर्थं दक्षिणमानसम् । दक्षिणे मानसे चैव तीर्थत्रयमुदाहृतम् स्नात्वा तेषु विधानेन कुर्याच्छ्राद्धं पृथक्पृथक् | दक्षिणे मानसे स्नानं करोम्यात्मविशुद्धये सूर्यलोकादिसंसिद्धिसिद्धये पितृमुक्तये । ब्रह्महत्यादिपापौघयातनाया विमुक्तये दिवाकर फरोमोह स्नानं दक्षिणमानसे | *सूर्यं नत्वाचयित्वा च सूर्यलोकं नयेत्पितॄन् नमामि सूर्य तृप्त्यर्थं पितॄणां तारणाय च | पुत्रपौत्रघनैश्वर्यायाऽऽयुरारोग्यवृद्धये+ ॥४ 112 ॥६ ॥७ ॥८ 118 ॥१० ॥११ ॥१२ कर रहा हूँ | स्नान के लिए तर्पण करने के उपरान्त पिण्ड श्राद्ध करे | मानस नामक सरोवर यहाँ वर्तमान हे अतः उसका उत्तर मानस नाम पड़ा है। वहीं सूपं को नमस्कार एवं पूजन करने वाला अपने पितरों को सूर्य लोक पहुँचाता है |३४| परम ऐश्वर्यशाली, पालक, चन्द्रमा, मङ्गल, बुध, बृहस्पति शुक्र, शनि, राहु एवं केतु स्वरूप सूर्य देव को हमारा नमस्कार है। इस प्रकार सूर्य को नमस्कार करने के उपरान्त मौन धारण कर उत्तर मानस से दक्षिण मानस की यात्रा करनी चाहिए | वह उदोचो का तीर्थ कहा जाता है, वह मौदीच्य तीर्थ विमुक्ति देनेवाला है, इस तीर्थ में स्ना करनेवाला मनुष्य अपने शरीर से स्वर्ग लोक को प्राप्त करता है ।५-६। तीनों लोकों में विरुपात कनखल नामक तीर्थ मध्यभाग में अव स्थित है, वहां स्नान करने वाला मनुष्य सुवर्ण की तरह कान्तिशाली एवं परम पुनीत होता है। उसके दक्षिणभाग में दक्षिण मानस नामक तीर्थ है, दक्षिण मानस में तीन तीर्थं कहे जाते हैं | इन तीनों तीर्थों में विधिपूर्वक स्नान पृथक् पृथक् श्राद्ध फर्म सम्पन्न करना चाहिये । 'आत्म विशुद्धि के लिये दक्षिण मानस में स्नान कर रहा हूँ |७-६। सूर्य लोक प्रभृति लोकों में प्राप्त होने वाली सिद्धियो की प्राप्ति के लिये पितरों की मुक्ति के लिये, ब्रह्महत्या, घोर पाप कर्मों एवं यातनाओं से छुटकारा प्राप्त करने के लिये, हे दिवाकर देव ! मैं इस दक्षिण मानस तीर्थ में स्नान कर रहा हूँ, इस प्रकार सूर्य को नमस्कार एवं पूजित कर मनुष्य अपने पितरों को स्वर्ग लोक पहुँचाता है |१०-११। 'हे सूर्य देव ! मैं आप को तृप्ति एवं पितरों को तारने के लिये नमस्कार कर
- इदमर्ध न क. पुस्तके । + एतदग्रेऽयं दलोकः क. पुस्तके टिप्पण्याम्- अनेन स्नानदानादि कृत्वा श्राद्धं
सपिण्डकम् । कृत्वा नत्वा च मौन्यर्कमिमं मन्यमुदीरयेत् । एतद इदमधँम् - एतत्तीर्थत्रये मोनो स्नानश्राद्धादिकं चरेत् । इति ख. पुस्तके |