नवाधिकशततमोऽध्यायः एकेनातिष्ठदव्यग्रः शीर्णपर्णानिलाशनः । ब्रह्मदींस्तपसा तुष्टान्वरं वव्रे वरप्रदान् देवैत्यश्च शस्त्रास्त्रविविधैर्मनुजादिभिः | कृष्णेशानादिचक्काद्यैरवध्यः स्यां महाबलः तथेत्युक्त्वाऽन्तहितास्ते हेतिर्देवानथाजयत् । इन्द्रत्वमकरोद्धेतिर्भीता ब्रह्महरादयः हरि ते शरणं जग्मुरूनुर्हति जहोति तान् | ऊचे हरिश्वध्योऽयं हेतिर्देवासुरैः सुराः महास्त्रं मे प्रयच्छध्वं हेति हन्मि हि येन तम् । इत्युक्तास्ते ततो देवा गदां तां हरये ददुः दधार तां गदामादौ देवरुक्तो गदाधरः | गदया हेतिमाहत्य देवैः स त्रिदिवं ययौ गदामादाववष्टभ्य गयासुरशिरः शिलाम् । निश्चलार्थं स्थितो यस्मात्तस्मादादिगदाधरः शिलापर्वतरूपेण व्यक्त आदिगदाधरः | शिलासौ मुण्डपृष्ठाद्रिः प्रभासो नाम पर्वतः उद्यन्तो गोतनादश्च भस्मकूटो गिरिर्महान् | गृधूकूटः प्रेतकूटश्चाऽऽदिपालोडरविन्दकः पश्चलोकः सप्तलोको वैकुण्ठो लोहदण्डकः | क्रौञ्चपादोऽक्षयवटः फल्गुतीर्थं मधुधं (त्र) वा ११०५ ॥७ ॥८ HIE ॥१० ॥ ११ ॥१२ ॥१३ ॥१४ ॥१५ ॥१६ और दोनों बाहुओं को ऊपर कर शान्त चित्त से वह तपस्या में लीन था । इस अवधि में पुराने, गिरे हुए पत्तो एवं वायु का आहार करता था |५-६३ | इस परम कठोर तपस्या से सुप्रसन्न वरदायक ब्रह्मा प्रभृति देवगणों से उसने वरदान की याचना की कि मैं समस्त देव, दैत्य विविध प्रकार के शस्त्र अस्त्र, मनुष्य, कृष्ण, शिव, सुदर्शन चक्रादि से न मारा जाऊँ, मेरे समान महाबलवान् कोई दूसरा न हो । देवगण हेति की प्रार्थना स्वी- कार कर अन्तहित हो गये १७-८३१३। तदुपरान्त उसने देवताओं को पराजित कर इन्द्रका पदछीन लिया, ब्रह्मा महादेव - सभी उसके इस प्रचण्ड कर्म से भयभीत होकर विष्णु भगवान् की शरण में गये और बोले, भगवन् । हेति का संहार कीजिये । हरि ने देवगणों से कहा, सुरवृन्द ! हेति समस्त देवताओं एवं असुरो द्वारा भी नही मारा जा सकता । मुझे कोई महान् अस्त्र दीजिये जिससे हेति का वध कर सकूँ | भगवान् विष्णु के इस प्रकार कहने पर देवताओं ने वही गदा उन्हें समर्पित की ||६-१११ देवताओं के अनुरोध पर हरि ने सर्व प्रथम उस गदा को धारण किया, और उसी से हेति का विनाश कर सुरगणों के साथ स्वर्ग लोक को प्रस्थान किया गयासुर के निश्चलता करने के लिये ऊपर रखी गई शिला पर भगवान् ने उसी गदा को स्थापित किया था, इसीलिये उसका नाम आदि गदाधर पड़ा |१२-१३। शिलापर्वत स्वरूप से भगवान् आदि गदाधर उस गया क्षेत्र में व्यक्त हुए शिला के अतिरिक्त मुण्डपृष्ठाद्रि, प्रभास, उद्यन्त, गीतनाद, भस्मकूट नामक महागिरि, गृध्रकूट, प्रेतकूट, गादिपाल, अरविन्दक, पञ्चलोक, सप्तलोक, वैकुण्ठ, लोहदण्डक, क्रौञ्चपाद, अक्षयवट फल्गुतीर्थ, मधुश्रवा फा०-१३६
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